Hindi, asked by krishnavamshi5772, 1 year ago

Essay on “A Journey by The Train in Winter Season” in Hindi

Answers

Answered by Maximus
1
ठंडी का मौसम था और हमारे परिवार ने यानी मेरे पिताजी ने एक जगह के घूमने का विचार किया और वह जगह थी मेरे चाचा जी का घर जो कि देहरादून में रहते थे हम सबने दिल्ली से रेल यात्रा का विचार कर अपनी स्वीकृति दी सभी लोग तैयारियों में जुट गए क्योंकि हमें आज से 2 दिन बाद सुबह 4:00 बजे ही देहरादून के लिए ट्रेन पकड़नी थी मुझे तो आज बहुत खुशी हो रही थी खुशी इसलिए नहीं कि चाचा के घर जा रहे हैं खुशी इसलिए थी 24 घंटे ट्रेन में बिताने है और खैर आज वह दिन भी आ गया जिस दिन हमें अपनी यात्रा प्रारंभ करनी थी उस दिन मैं तो पूरी रात ही नहीं सोया सुबह 4:00 बजे हमें रेलगाड़ी सही वक्त पर मिल गई और हमने अपनी यात्रा प्रारंभ की मैंने बड़ी मुश्किल और लड़ाई झगड़े के बाद विंडो सीट प्राप्त करके और ठंडी का मौसम था इसीलिए रात भी बहुत गहरी और काली थी लेकिन रात में भी बाहर से बहुत हल्की और ठंडी हवा आ रही थी सभी लोग मुझसे खिड़की बंद करने को कहते रहे लेकिन मैंने खिड़की बंद नहीं की क्योंकि मुझे उधर से ठंडी हवा बहुत प्यारी लग रही थी मैं तो पूरे दिन सोया ही नहीं बहुत ही मनोरम दृश्य उस खिड़की से देखने का अनुभव मुझे प्राप्त हुआ क्योंकि ठंड बहुत ज्यादा थी तो मेरी नाक लाल हो गई फिर मैंने बोला अब तो इस खिड़की को बंद कर दे तो फिर मैंने खिड़की बंद की और खाना खाने के लिए बैठ गया ट्रेन में खाना खाने का एक अलग ही मजा होता है हम लोगों ने वहां खाना खाया और देखते ही देखते हो उत्तराखंड प्रदेश के अंदर प्रवेश कर गए मुझे तो ऐसा लगा मानो किसी स्वर्ग पर आ गए हो कितना मनोरम कितना शीतल वातावरण था वहां का वहां हवा अत्यधिक ठंडी थी और ठंड भी बहुत ज्यादा थी लेकिन मुझे वह सब बहुत अच्छा लग रहा था और खिड़की से देखने में कुछ अत्यधिक अच्छा है फिर हम लोग ट्रेन से उतरने के बाद चाचा के घर पहुंच गए और वहां बहुत से स्थानों की शहर की और करीब 5 दिन बाद हम भी ट्रेन द्वारा वापस आ गए अब की बार मुझे उतना अच्छा नहीं लग रहा था क्योंकि अब मैं घर पहुंचने वाला था लेकिन कुछ भी हो यात्रा बहुत सुखद और अनुभव पूर्ण रही
Answered by Anonymous
5
प्रिय मित्र , भारत के नगरीय क्षेत्रों में लोकल ट्रेनों के चलने से स्थानीय निवासियों को काम-काज के स्थानों तक आने-जाने में बहुत मदद मिलती है । लोकल ट्रेन देश के प्राय: सभी भागों में स्थानीय यात्रियों की सुविधा के लिए चलाए जाते हैं ।
इनका किराया प्राय: कम होता है जिससे मध्यवर्गीय तथा निर्धन वर्ग के यात्रियों को राहत मिलती है । जिन क्षेत्रों से होकर रेलमार्ग गुजरता है वहाँ के लोग स्थानीय रेल सेवाओं का भरपूर लाभ उठाते हैं ।परंतु लोकल ट्रेन की यात्रा हमेशा सुखदायी नहीं होती है ।खासकर सुबह और शाम के समय इनमें अत्यधिक भीड़ होती है । यात्रियों से खचाखच भरी बोगियों में अच्छी तरह पैर रखने की जगह नहीं होती । विभिन्न कार्यालयों के कर्मचारी छात्र-छात्राएँ दूधवाले फेरीवाले सब्जीवाले आदि विभिन्न वर्गों के व्यक्ति अपने-अपने गंतव्य तक जाने के लिए सुबह के समय इन लोकल ट्रेनों की यात्रा करते हैं ।

इन दैनिक यात्रियों को लोकल ट्रेन में चढ़ने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है । ऐसी हालत में वृद्धों, महिलाओं और बच्चों के लिए इनमें यात्रा करना अत्यंत कठिन होता है । मुझे लोकल टेरन से यात्रा करने के कई अवसर प्राप्त हुए हैं । परंतु एक बार मुझे अत्यंत कष्टकारक अनुभव से गुजरना पड़ा ।ट्रेन पर किसी तरह चढ़ तो गया परंतु कई मिनटों तक दरवाजे से ही लटकी हुई दशा में रहना पड़ा । आगे खड़े यात्री सरकने के लिए तैयार ही नहीं थे । किसी तरह बोगी में दाखिल हो गया परंतु एक पैर ही बोगी पर टिका था । यात्रियों का दवाब सभी ओर से था ।कुछ यात्री मेरे पैर पर ही अपना पैर रखकर आगे बढ़ जाते थे । ऊपर से भयंकर गरमी और फव्वारे की तरह शरीर से छूटता पसीना । हमारी ट्रेन प्रत्येक पाँच-दस मिनट चलकर फिर से रुक जाती थी । छोटे से छोटे हाल एवं स्टेशन पर भी दस मिनट तक रुककर चलना इस टेरन की नियति बन गई थी ।ट्रेन जब भी रुकती बोगी के अंदर बाहरी हवा का प्रवेश कम हो जाता था । सभी यात्रियों का गरमी के कारण बुरा हाल था । टेरन की रफ्तार अत्यंत धीमी थी । किसी तरह मैं डब्बे के मध्य भाग तक पहुँच गया । मुझे यहाँ तक पहुँचाने में पीछे खड़े यात्रियों के लगातार दिए जाने वाले धक्के का बहुत बड़ा योगदान था ।
परंतु यहाँ भी राहत नहीं थी । मूँगफली, चाय, पान-बीड़ी-सिगरेट, मसालेदार चने, ककड़ी, खीरा आदि बेचने वाले अपनी आक्रामक शैली में जब आगे बढ़ते तो खड़े हुए यात्रियों को हर बार अपनी पोजीशन बदलनी पड़ती थी । इस भयंकर गरमी में खीरा, ककड़ी तथा शीतल पेय खरीदने वाले यात्रियों की संख्या अधिक थी ।इस यात्रा के दौरान मैंने कई बार खाली हुई सीट पर बैठने की चेष्टा की परंतु असफल ही रहा । मेरी तरह कई अन्य इस सीट के दावेदार थे । कई बार मुझे ‘लेडीज फर्स्ट’ के सिद्धांत के आधार पर खाली हुई सीट पर बैठने के स्वाभाविक अधिकार से वंचित होना पड़ा ।कुछ दूरी पर खड़ा एक वृद्ध बार-बार बगल की सीट पर बैठे यात्रियों की ओर करुण नेत्रों से देख रहा था । परंतु उसके नेत्रों की भाषा समझकर किसी ने भी उसे नहीं बिठाया । कुछ यात्री सीट हथियाने की चेष्टा में बीच-बीच में आपस में लड़ भी बैठते थे ।
मैंने ‘संतोषम् परमं सुखम्’ वाले नीति वाक्य को ध्यान में रखकर खड़े रहकर ही लोकल टेरन की यह यात्रा पूरी करने का मन ही मन संकल्प ले लिया । लगभग अस्सी किलोमीटर की दूरी चार घंटे में तय करने के बाद ट्रेन ने मुझे मेरे गंतव्य स्टेशन तक पहुँचा दिया । इक्कीसवीं सदी की इस तेज रफ्तार ट्रेन को धन्यवाद देकर मैं धक्का-मुक्की करते हुए ट्रेन से उतर गया ।
धन्यवाद ;) ☺☺☺
Similar questions