essay on hindi adunik yug mey media ki bumika
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मीडिया यानि मीडियम या माध्यम। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। इसी से मीडिया के महत्त्व का अंदाजा लगाया जा सकता है।समाज में मीडिया की भूमिका संवादवहन की होती है।वह समाज के विभिन्न वर्गों, सत्ता केन्द्रों,व्यक्तियों और संस्थाओं के बीच पुल का कार्य करता है।
आधुनिक युग में मीडिया का सामान्य अर्थ समाचार-पत्र, पत्रिकाओं, टेलीविज़न, रेडियो, इंटरनेट आदि से लिया जाता है।किसी भी देश की उन्नति व प्रगति में मीडिया का बहुत बड़ा योगदान होता है।अगर मैं कहूँ कि मीडिया समाज का निर्माण व पुनर्निर्माण करता है, तो यह गलत नहीं होगा। इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण भरे पड़े हैं जब मीडिया की शक्ति को पहचानते हुए लोगों ने उसका उपयोग लोक परिवर्तन के भरोसेमंद हथियार के रूप में किया है।अंग्रेज़ों की दासता से सिसकते भारतीयों में देश- भक्ति व उत्साह भरने में मीडिया का बड़ा योगदान था।
आज भी मीडिया की ताकत के सामने बड़े से बड़ा राजनेता,उद्योगपति आदि सभी सिर झुकाते हैं। मीडिया का जन-जागरण में भी बहुत योगदान है। बच्चों को पोलियो की दवा पिलाने का अभियान हो या एड्स के प्रति जागरुकता फैलाने का कार्य, मीडिया ने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से निभाई है।लोगों को वोट डालने के लिये प्रेरित करना,बाल मज़दूरी पर रोक लगाने के लिये प्रयास करना,धूम्रपान के खतरों से अवगत कराना जैसे अनेक कार्यों में मीडिया की भूमिका सराहनीय है।मीडिया समय-समय पर नागरिकों को उनके अधिकारों के प्रति जागरुक करता रहता है। देश में भ्रष्टचारियों पर कड़ी नज़र रखता है।समय-समय पर स्टिंग ऑपरेशन कर इन सफेदपोशों का काला चेहरा दुनिया के सामने लाता है। इस प्रकार मीडिया हमारे लिये एक वरदान की तरह है।
किंतु रुकिए! जैसे फूल के साथ काँटे होते हैं, उसी प्रकार मीडिया भी वरदान ही नहीं अभिशाप भी है। मीडिया या प्रेस को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। मिलती भी है। लेकिन स्वतंत्रता जब सीमा लाँघ जाए तो उच्शृंखलता बन जाती है। कुछ ऐसा ही हाल मीडिया का भी है।आज के समाज मे मीडिया पैसा कमाने के लालच में समाज को गुमराह कर रहा है। आज हमारे समाचार पत्र अपराध की खबरों से भरे रहते हैं। जबकि सकारात्मक समाचारों को स्थान ही नहीं मिलता । यदि मिलता भी है तो बीच के पन्नों पर कही किसी छोटे से कोने में।
टी.वी. तो इससे भी चार कदम आगे है।टी. वी. पर चैनलों की जैसे बाढ़ सी आई हुई है।हर किसी का ध्येय है ऊँची टी. आर. पी. यानि अधिक से अधिक पैसा। ज़रा देखिए न्यूज़ चैनल पर आप को क्या देखने को मिलता है? सुबह- सुबह चाय के साथ अपना भविष्य जानिये। दिन में टी. वी. सीरियलों की गपशप देखिए। रात को देखिए ‘सनसनी’ या ‘क्राइम पैट्रोल’ चैन से सोना है तो जाग जाइए। ऐसा लगता है कि समाज में या तो केवल अपराध हैं या फिर हीरो-हीरोइनों के स्कैंडल। क्या कहीं कुछ अच्छा नहीं है?
‘सनसनी’ फैलाने के लिए ये देश की सुरक्षा को भी दाँव पर लगाने से नहीं चूकते। 26\11 को हम कैसे भूल सकते हैं। बड़े-बड़े चैनलों पर पूरी कार्यवाही का सीधा-प्रसारण दिखाया गया। जिससे होटल में घुसे आतंकवादी बाहर होने वाली हलचल से वाकिफ होते रहे और हमारा अधिक से अधिक नुकसान करते रहे। मीडिया यदि अपने निहित स्वार्थों को भूलकर अपनी ज़िम्मेदारी निभाए तो समाज को एक दिशा प्रदान कर सकता है।मीडिया अपराध की खबरों को दिखाए पर सकारात्मक समाचारों से भी किनारा न करे। समाज में फैली बुराइयों के अलावा विकास को भी दिखाए ताकि आम आदमी निराशा में डूबा न रहे कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता।
अंत में मैं मीडिया के प्रति यही कहते हुए अपनी बात समाप्त करना चाहूँगी कि
शक्ति का तू स्रोत है, वाणी में तेरी ओज है
लोक के इस तंत्र का तू एक महान स्तंभ है
भूल अपने स्वार्थ को फिर देश का निर्माण कर
मनुज के मन में नया फिर से तू ही विश्वास भर।
मीडिया हमारे चारों ओर मौजूद है, टी.वी. सीरियल व शौ जो हम देखते हैं, संगीत जो हम रेडियों पर सुनते हैं, पत्र एवं पत्रिकाएं जो हम रोज पढ़ते हैं। क्योंकि मीडिया हमारे काफी करीब रहता है। हमारे चारों ओर यह मौजूद होता है। तो निश्चित सी बात है इसका प्रभाव भी हमारे ऊपर और हमारे समाज के ऊपर पड़ेगा ही।
लोकतंत्र के चार स्तंभ माने जाते हैं, विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता-यह स्वाभाविक है कि जिस सिंहासन के चार पायों में से एक भी पाया खराब हो जाये तो वह रत्न जटित सिंहिसन भी अपनी आन-बान-शान गंवा देता है।
आर्थिक कष्टों में भी उनकी कलम कांपती नहीं थी, बल्कि दुगुनी जोष के साथ अंग्रेजों के खिलाफ आग उगलती थी, स्वाधीनता की पृष्ठ भूमि पर संघर्ष करने वाले और देष की आजादी के लिये लोगों मंे अहिंसा का अलख जगाने वाले महात्मा गांधी स्वयं एक अच्छे लेखक व कलमकार थे। महामना मालवीय जी ने भी अपनी कलम से जनता को जगाने का कार्य किया। तब पत्रकारिता के मायने थे देष की आजादी और फिर आजादी के बाद देष की समस्याओं के निराकरण को लेकर अंतिम दम तक संघर्ष करना और कलम की धार को अंतिम दम तक तेज रखना। जब हमारा देश पराधीनता की बेडिय़ों में जकड़ा हुआ था उस समय देश में इने-गिने सरकार समर्थक अखबार थे जो सरकारी धन को स्वीकार करते रहते थे। अंक प्रति आय जनता में भी अच्छी भावना नही थी। इन दिनों उन पत्रों को अधिक लोकप्रियता मिली जो राष्ट्रीय विचारधाना के थे और जनता में राष्ट्रीय चेतना पैदा करने के लिए प्रयत्नशील थे।
जब भी मीडिया और समाज की बात की जाती है तो मीडिया को समाज में जागरूकता पैदा करने वाले एक साधन के रूप में देखा जाता है, जो की लोगों को सही व गलत करने की दिषा में एक प्रेरक का कार्य करता नज़र आता है। जहां कहीं भी अन्याय है, शोषण है, अत्याचार, भ्रष्टाचार और छलना है उसे जनहित में उजागर करना पत्रकारिता का मर्म और धर्म है। हर ओर से निराश व्यक्ति अखबार की तरफ आता है। अखबार ही उनकी अन्धकारमय जिन्दगी में उम्मीद की आखिरी किरण है। अखबारों को पीडि़तों का सहारा बनना चाहिए। समाचारपत्र जगत की यह तस्वीर आम पाठक देखता है। यहां यह कहना असंगत नहीं होगा कि अखबार अपनी जिस जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं वह अति सीमित है। यदि गौर किया जाए तो कुछ ऐसी ही विषयवस्तु पत्रकारिता की भी है। पत्रकारों के लिए भी मोटे तौर पर ये संवेदनशील मुद्दे ही उनकी रिपोर्ट का स्रोत बनते हैं। भारत जैसे देश में जहां गरीबी व अज्ञानता ने समाज के एक बड़े हिस्से को अंधकार में रखा है, वहां मानवाधिकारों के बारे में जागरुकता जगाने में, उनकी रक्षा में तथा आम आदमी को सचेत करने में अखबार समाज की मदद करते हैं। आम आदमी को उसके अधिकारों के बारे में शिक्षित करने में मीडिया निश्चित रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सूचना के प्रचार-प्रसार से लेकर आम राय बनाने तक में मीडिया अपने कर्तव्य का भली-भांति वहन करता है। एक विकासशील देश में जहां मानवाधिकारों का दायरा व्यापक है, वहां मीडिया के सहयोग के बिना सामाजिक बोध जगाना लगभग असंभव है।
मीडिया ट्रायल -- ऐसी प्रवृत्तियां मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करती हैं। अपराध और अपराधीकरण को ग्लैमराइज्ड करना कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता है।
पत्रकार संगठनों ने पत्रकारिता का वजूद बचाये रखने की दिशा में जो थोड़ी-बहुत कोशिशें जारी रखी हैं उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज ही बनकर रह गई है। दरअसल पत्रकार संगठनों के मुखिया अधिकतर सेवानिवृत्त होते हैं और उनके संपादक्त्व में निकलने वाले अखबार उनकी मौजूदगी में ही उन बीमारियों से ग्रस्त होते गए हैं और अपनी बात मनवाने की कोशिश में उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ा था।
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