Hindi, asked by mahima13june, 1 year ago

essay on jivan ki karunta in Gujarati

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Answered by Kshayank
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जीवन का अर्थ है ‘गतिशीलता’ । प्राणिमात्र को हम तब तक जीवित मानते हैं जब तक उसमें आतरिक और बाह्य गतियाँ विद्यमान रहती हैं । जब गति ठहर जाती है तब उसे निर्जीव अथवा ‘मृत’ घोषित कर दिया जाता है । इसी प्रकार साहित्य में भी जब तक गति रहती है तब तक वह सजीव माना जाता है ।

साहित्य की गतिशीलता और प्रगति जब तक रहती है, वह जीवित कहलाता है और जब उसका विकास रुक जाता है, तब उसे ‘मृत’ मान लिया जाता है । मानव-समाज के प्रारंभ से अब तक विश्व में न जाने कितने साहित्यों का जीवन समाप्त हो चुका और अब भी कितने जीवित हैं तथा कितने भविष्य में आनेवाले हैं ।

प्रकृति में गतिक्षविकास है, परिवर्तनशीलता है । अत: वह सजीव है । साहित्य भी प्रकृति की अनुकृति है, जिसमें प्रगति, परिवर्तन और विकास अनिवार्य है, जो सजीव साहित्य का लक्षण है । साहित्य-निर्माण का उद्‌देश्य मानव-उपयोग, मानव का कल्याण और मनोरंजन है जब तक साहित्य जन-साधारण के संघर्ष में रहता है अर्थात् सामान्य-जन अपने दैनिक जीवन में उसका उपयोग करते रहते हैं तब तक उसमें निरंतर नवीन प्रयोग होते रहते हैं, किंतु जब वह विद्वानों के विलास का साधन बन जाता है तब उसकी गतिशीलता का हास होने लगता है ।

वह केवल विद्वानों की मंडली में सम्मिलित हो जाता है । कालांतर में वैसा साहित्य अपनी गतिशीलता खोकर ‘मृत साहित्य’ कहा जाने लगता है । उसमें प्रकृति को नवीन रूप में व्यक्त करने की शक्ति नष्ट हो जाती है । जिस समाज का रिश्ता ऐसे निर्जीव साहित्य मात्र से रहता है, वह ‘निर्जीव समाज’ कहलाता है ।

प्राय: सभी धर्मों में उनका धार्मिक साहित्य ही प्राचीन साहित्य माना जाता है । वैदिक साहित्य को विश्व का प्राचीनतम साहित्य अगर माना जाए तो कहना होगा कि उसके पूर्व का समाज और साहित्य अतीत के गर्भ में विलीन हो गए । भारत के पूर्व-इतिहास काल में ऋषियों ने तत्कालीन समाज और जीवन-क्रम का जो वर्णन किया, वह ‘वैदिक साहित्य’ कहलाया ।

उसके हास के साथ संस्कृत-साहित्य का आविर्भाव हुआ । आज उसे सजीव साहित्य नहीं कहा जा सकता है । उसके स्थान पर आज देशीय भाषा साहित्य विकसित हो रहा है, जो जीवंत और गतिशील है । अरबी, फारसी, लैटिन, रोमन आदि प्राचीन पाश्चात्य साहित्यों की भी यही स्थिति है ।

आधुनिक भारतीय भाषा-साहित्यों की तरह अन्य राष्ट्रों में भी अंग्रेजी जर्मन, फ्रेंच, उर्दू रूसी, चीनी, बर्मी, जापानी आदि सैकड़ों भाषाओं में गतिशील साहित्य पनप रहा है, जिनके रूपों से निरंतर परिवर्तन अथवा नवीनता देखी जा सकती है । छठी सदी में जब पाणिनि ने संस्कृत को व्याकरणबद्ध किया तब संस्कृत-साहित्य निर्माण में गतिशीलता का हास होने लगा तथा देशी भाषा-साहित्यों में जीवन-तत्त्व पुष्ट होने लगा ।

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