essay on matra bhasha or uska mahatve
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मातृभाषा का महत्व
प्राकृत-उद्गमित, सम्प्रेषणा-युक्त, जन-तन्द्रा-अन्तक, भावपूर्ण मातृभाषा है-हिंदी । “भारत दुर्दशा” जैसे निबंध लिखकर इस देश को जगाने वाले महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने मातृभाषा का महत्व कुछ इस प्रकार से बताया है-निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल ।।अंग्रेजी पढिके जदपि, सब गुन होत प्रबीन ।पै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।।विविध कला, शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार ।सब देसन से लै करहु, निज भाषा माँहि प्रचार ।।हिंदी- वैसे तो यह इस देश की राजभाषा और हम सबकी मातृभाषा है परन्तु आज यह भाषा आज अपनी ही बुनियाद की रक्षा में लगी है। ये वही भाषा है जिसने इस सोते हुए राष्ट्र को दासता की नींद से जगाया। इसी भाषा ने भारत को स्वतंत्रता का अर्थ समझाया। यही वह भाषा है जो ऐतिहासिक स्वातंत्र्य-संघर्ष की साक्षी बनी। महात्मा गाँधी के अविस्मरणीय विचारों की माध्यम बनकर इसी भाषा ने देश में परिवर्तन की नींव रखी। यही वो भाषा है जिसने विभिन्न जाति-धर्म-समुदायों में बिखरे इस देश में प्रथम बार राष्ट्रवाद की स्थापना की। शुक्ल, द्विवेदी और प्रसाद ने इसका परिष्कार किया। प्रेमचंद, गुप्त और दिनकर ने इसमें भावनाएं भरी। और अंततः यह भाषा भारत में अभिव्यक्ति का पर्याय बनी। इस देश की संसदीय परंपरा को इसी भाषा ने जन्म दिया। न-जाने कितनी ही बोलियों की माता यह भाषा अनगिनत पत्रों-पुस्तकों-पत्रिकाओं के माध्यम से घर-घर पंहुचती रही। आज भी सिनेमा, टीवी और रेडियो के ज़रिये यही भाषा हमारा मनोरंजन कर रही है। एक माता के रूप में हिंदी तो अपने समस्त कर्त्तव्य समुचित रूप से निभाती रही, परन्तु हम कृतघ्न इस माँ के उपकारों को भूल कर अंग्रेजी(आंटी) की गोद में जा बैठे।मेरा उद्देश्य यहाँ हिंदी पर अंध प्रेम प्रदर्शित करते हुए अंग्रेजी का अतार्किक विरोध करना नहीं है, ऐसे कई मौलिक कारण है जो मातृभाषा के किसी भी राष्ट्र की सफलता के पीछे छुपे महत्व को प्रदर्शित करते हैं।कई लोगों का यह मत है की हिंदी देश के सभी लोग नहीं बोलते इसी कारण से हमें एक व्यापक अंतर्राष्ट्रीय भाषा को अपना लेना चाहिए। इसी कारण सर्वप्रथम हम लोगों की यह विचारधारा कि- हिंदी भारत की सर्वव्यापी भाषा नहीं है, का खंडन करना चाहेंगें। यह एक संपूर्ण भारत में मिले शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों के माध्यम से प्रमाणित ऐतिहासिक तथ्य है कि 8 वीं शताब्दी ई.पू. तक संस्कृत आर्यों की सामान्य बोलचाल की भाषा होने के साथ ही साहित्य की परिनिष्ठित भाषा थी। कालांतर में(2री शताब्दी ई.पू.) यह भाषा देश में “पाली” भाषा तथा विदेशों में “अरबी” एवं “फारसी” में परिवर्तित हो गयी। भगवान भुद्ध ने अपने उपदेश पाली भाषा में ही दिए थे। 3री शताब्दी ई. तक आते-आते पाली भाषा से एक अपभ्रंश भाषा “प्राकृत” का जन्म हुआ। हिंदी साहित्य का प्रारम्भ इसी प्राकृत भाषा से हुआ है। प्राकृत भाषा सिंधु नदी से उस पार फारस में “हिंदवी” के नाम से जानी जाने लगी । वस्तुतः “हिंदवी”” शब्द की उत्पत्ति “सिंधी” से ही हुयी है, चूँकि फारसी लोग “स” को “ह” उच्चारित करते थे। यही “हिन्दवी” शब्द बाद में हिंदी हो गया। अमीर खुसरो ने इसी भाषा में साहित्य की रचना की। इस प्रकार से यह स्पष्ट है की प्राकृत ही हिंदी भाषा थी। बाद में यह प्राकृत भाषा(अथवा फारसियों में हिंदी के नाम से जानी जाने वाली भाषा) विखंडित होकर पैशाची, मागधी, ब्राचड, महाराष्ट्री, अर्धमागधी, शौरसेनी आदि भाषाओं में बदल गयी। आजकल की भाषाओं पंजाबी, बिहारी, असमिया, मलयाली, सिंहली, उड़िया, मराठी और गुजराती आदि का जन्म इन्ही भाषाओं से हुआ। शेष क्षेत्रों में प्राकृत(अथवा मूल हिंदी) ही प्रचलन में रही। १२ वी शताब्दी ई. में फारस आक्रमणकारियों की भारत विजय के पश्चात भारतवर्ष “हिन्दुस्तान” एवं प्राकृत “हिंदी” के रूप में प्रचलित हो गयी। समय के साथ हिंदी में ब्रिज, अवधी, बुन्देली आदि बोलियां विकसित हो गयी, जिनमें साहित्य परिष्कार भी हुआ। इस प्रकार यह स्पष्ट है की आधुनिक भारत की समस्त भाषाओं का जन्म “प्राकृत” अथवा “हिंदवी” से ही हुआ है। यही कारण है की हिंदी में सभी दक्षिण एशियाई भाषाओं के शब्द चाहे वो विदेशी अरबी एवं फारसी हों या मूल संस्कृत के तत्सम शब्द हों बहुतायत में मिलते हैं। यही भाषा अखंड भारत में कैलाश मानसरोवर से लेकर सिंहल द्वीप तक प्रचलित थी, जो बाद में अपभ्रंश होकर नवीन भाषाओं के रूप में विकसित हो गयी। इस प्रकार से उपरोक्त तथ्यों के आधार पर संस्कृत की मौलिक प्रथम उत्तराधिकारी भाषा हिंदी ही है जो की प्राकृत के रूप में देश की समस्त आधुनिक भाषाओं की जननी है एवं इसी कारण से हम इसे भारत की सर्वव्यापी भाषा का दर्जा देते हैं। साथ ही साथ यह कोई नयी जानने योग्य बात नहीं है की हिंदी विश्व की तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है।
भारत एक विविधताओं से परिपूर्ण राष्ट्र होते हुए भी अपनी एकल-सांस्कृतिक-चेतना के लिए विश्वविख्यात है। हमारी संस्कृति किसी धर्म या जाति की नहीं, अपितु हमारे भारतीय होने की द्योतक है। किसी भी संस्कृति के चार स्तंभ- राष्ट्रवाद, भाषा, आचार-विचार एवं परम्पराएं; एक रथ के चार पहियों की तरह होते हैं। हिन्दी और इसकी बोलियाँ उत्तर एवँ मध्य भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं । भारत और अन्य देशों में में ६० करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की अधिकतर और नेपाल की कुछ जनता हिन्दी बोलती
प्राकृत-उद्गमित, सम्प्रेषणा-युक्त, जन-तन्द्रा-अन्तक, भावपूर्ण मातृभाषा है-हिंदी । “भारत दुर्दशा” जैसे निबंध लिखकर इस देश को जगाने वाले महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने मातृभाषा का महत्व कुछ इस प्रकार से बताया है-निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल ।।अंग्रेजी पढिके जदपि, सब गुन होत प्रबीन ।पै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।।विविध कला, शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार ।सब देसन से लै करहु, निज भाषा माँहि प्रचार ।।हिंदी- वैसे तो यह इस देश की राजभाषा और हम सबकी मातृभाषा है परन्तु आज यह भाषा आज अपनी ही बुनियाद की रक्षा में लगी है। ये वही भाषा है जिसने इस सोते हुए राष्ट्र को दासता की नींद से जगाया। इसी भाषा ने भारत को स्वतंत्रता का अर्थ समझाया। यही वह भाषा है जो ऐतिहासिक स्वातंत्र्य-संघर्ष की साक्षी बनी। महात्मा गाँधी के अविस्मरणीय विचारों की माध्यम बनकर इसी भाषा ने देश में परिवर्तन की नींव रखी। यही वो भाषा है जिसने विभिन्न जाति-धर्म-समुदायों में बिखरे इस देश में प्रथम बार राष्ट्रवाद की स्थापना की। शुक्ल, द्विवेदी और प्रसाद ने इसका परिष्कार किया। प्रेमचंद, गुप्त और दिनकर ने इसमें भावनाएं भरी। और अंततः यह भाषा भारत में अभिव्यक्ति का पर्याय बनी। इस देश की संसदीय परंपरा को इसी भाषा ने जन्म दिया। न-जाने कितनी ही बोलियों की माता यह भाषा अनगिनत पत्रों-पुस्तकों-पत्रिकाओं के माध्यम से घर-घर पंहुचती रही। आज भी सिनेमा, टीवी और रेडियो के ज़रिये यही भाषा हमारा मनोरंजन कर रही है। एक माता के रूप में हिंदी तो अपने समस्त कर्त्तव्य समुचित रूप से निभाती रही, परन्तु हम कृतघ्न इस माँ के उपकारों को भूल कर अंग्रेजी(आंटी) की गोद में जा बैठे।मेरा उद्देश्य यहाँ हिंदी पर अंध प्रेम प्रदर्शित करते हुए अंग्रेजी का अतार्किक विरोध करना नहीं है, ऐसे कई मौलिक कारण है जो मातृभाषा के किसी भी राष्ट्र की सफलता के पीछे छुपे महत्व को प्रदर्शित करते हैं।कई लोगों का यह मत है की हिंदी देश के सभी लोग नहीं बोलते इसी कारण से हमें एक व्यापक अंतर्राष्ट्रीय भाषा को अपना लेना चाहिए। इसी कारण सर्वप्रथम हम लोगों की यह विचारधारा कि- हिंदी भारत की सर्वव्यापी भाषा नहीं है, का खंडन करना चाहेंगें। यह एक संपूर्ण भारत में मिले शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों के माध्यम से प्रमाणित ऐतिहासिक तथ्य है कि 8 वीं शताब्दी ई.पू. तक संस्कृत आर्यों की सामान्य बोलचाल की भाषा होने के साथ ही साहित्य की परिनिष्ठित भाषा थी। कालांतर में(2री शताब्दी ई.पू.) यह भाषा देश में “पाली” भाषा तथा विदेशों में “अरबी” एवं “फारसी” में परिवर्तित हो गयी। भगवान भुद्ध ने अपने उपदेश पाली भाषा में ही दिए थे। 3री शताब्दी ई. तक आते-आते पाली भाषा से एक अपभ्रंश भाषा “प्राकृत” का जन्म हुआ। हिंदी साहित्य का प्रारम्भ इसी प्राकृत भाषा से हुआ है। प्राकृत भाषा सिंधु नदी से उस पार फारस में “हिंदवी” के नाम से जानी जाने लगी । वस्तुतः “हिंदवी”” शब्द की उत्पत्ति “सिंधी” से ही हुयी है, चूँकि फारसी लोग “स” को “ह” उच्चारित करते थे। यही “हिन्दवी” शब्द बाद में हिंदी हो गया। अमीर खुसरो ने इसी भाषा में साहित्य की रचना की। इस प्रकार से यह स्पष्ट है की प्राकृत ही हिंदी भाषा थी। बाद में यह प्राकृत भाषा(अथवा फारसियों में हिंदी के नाम से जानी जाने वाली भाषा) विखंडित होकर पैशाची, मागधी, ब्राचड, महाराष्ट्री, अर्धमागधी, शौरसेनी आदि भाषाओं में बदल गयी। आजकल की भाषाओं पंजाबी, बिहारी, असमिया, मलयाली, सिंहली, उड़िया, मराठी और गुजराती आदि का जन्म इन्ही भाषाओं से हुआ। शेष क्षेत्रों में प्राकृत(अथवा मूल हिंदी) ही प्रचलन में रही। १२ वी शताब्दी ई. में फारस आक्रमणकारियों की भारत विजय के पश्चात भारतवर्ष “हिन्दुस्तान” एवं प्राकृत “हिंदी” के रूप में प्रचलित हो गयी। समय के साथ हिंदी में ब्रिज, अवधी, बुन्देली आदि बोलियां विकसित हो गयी, जिनमें साहित्य परिष्कार भी हुआ। इस प्रकार यह स्पष्ट है की आधुनिक भारत की समस्त भाषाओं का जन्म “प्राकृत” अथवा “हिंदवी” से ही हुआ है। यही कारण है की हिंदी में सभी दक्षिण एशियाई भाषाओं के शब्द चाहे वो विदेशी अरबी एवं फारसी हों या मूल संस्कृत के तत्सम शब्द हों बहुतायत में मिलते हैं। यही भाषा अखंड भारत में कैलाश मानसरोवर से लेकर सिंहल द्वीप तक प्रचलित थी, जो बाद में अपभ्रंश होकर नवीन भाषाओं के रूप में विकसित हो गयी। इस प्रकार से उपरोक्त तथ्यों के आधार पर संस्कृत की मौलिक प्रथम उत्तराधिकारी भाषा हिंदी ही है जो की प्राकृत के रूप में देश की समस्त आधुनिक भाषाओं की जननी है एवं इसी कारण से हम इसे भारत की सर्वव्यापी भाषा का दर्जा देते हैं। साथ ही साथ यह कोई नयी जानने योग्य बात नहीं है की हिंदी विश्व की तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है।
भारत एक विविधताओं से परिपूर्ण राष्ट्र होते हुए भी अपनी एकल-सांस्कृतिक-चेतना के लिए विश्वविख्यात है। हमारी संस्कृति किसी धर्म या जाति की नहीं, अपितु हमारे भारतीय होने की द्योतक है। किसी भी संस्कृति के चार स्तंभ- राष्ट्रवाद, भाषा, आचार-विचार एवं परम्पराएं; एक रथ के चार पहियों की तरह होते हैं। हिन्दी और इसकी बोलियाँ उत्तर एवँ मध्य भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं । भारत और अन्य देशों में में ६० करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की अधिकतर और नेपाल की कुछ जनता हिन्दी बोलती
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