Essay on natural disasters in india in hindi
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पर्यावरण आज एक चर्चित और महत्वपूर्ण विषय है जिस पर पिछले दो-तीन दशकों से काफी बातें हो रहीं हैं। हमारे देश और दुनियाभर में पर्यावरण के असंतुलन और उससे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा भी बहुत हो रही है और काफी चिंता भी काफी व्यक्त की जा रही है लेकिन पर्यावरणीय असंतुलन अथवा बिगाड़ को कम करने की कोशिशें उतनी प्रभावपूर्ण नहीं हैं, जितनी अपेक्षित और आवश्यक हैं।
पर्यावरण के पक्ष में काफी बातें कहीं जा चुकी हैं। मैं इसके बिगाड़ से बढ़ रही प्राकृतिक आपदाओं के कारण जन-धन की हानि के लगातार बढ़ते आंकड़ों पर आपका ध्यान दिलाना चाहूंगा ताकि आप अनुभव कर सकें कि पर्यावरणीय असंतुलन तथा प्राकृतिक प्रकोपों की कितनी कीमत भारत तथा अन्य देशों को चुकानी पड़ रही है।
पर्यावरण के असंतुलन के दो मुख्य कारण हैं। एक है बढ़ती जनसंख्या और दूसरा बढ़ती मानवीय आवश्यकताएं तथा उपभोक्तावृत्ति। इन दोनों का असर प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ता है और उनकी वहनीय क्षमता लगातार कम हो रही है। पेड़ों के कटने, भूमि के खनन, जल के दुरुपयोग और वायु मंडल के प्रदूषण ने पर्यावरण को गंभीर खतरा पैदा किया है। इससे प्राकृतिक आपदाएं भी बढ़ी हैं।
पेड़ों के कटने से धरती नंगी हो रही है और उसकी मिट्टी को बांधे रखने, वर्षा की तीक्ष्ण बूंदों से मिट्टी को बचाने, हवा को शुद्ध करने और वर्षा जल को भूमि में रिसाने की शक्ति लगातार क्षीण हो रही है। इसी का परिणाम है कि भूक्षरण, भूस्खलन और भूमि का कटाव बढ़ रहा है जिससे मिट्टी अनियंत्रित होकर बह रही है। इससे पहाड़ों और ऊँचाई वाले इलाकों की उर्वरता समाप्त हो रही है तथा मैदानों में यह मिट्टी पानी का घनत्व बढ़ाकर और नदी तल को ऊपर उठाकर बाढ़ की विभीषिका को बढ़ा रही है। खनन की वजह से भी मिट्टी का बहाव तेजी से बढ़ रहा है। उद्योगों और उन्नत कृषि ने पानी की खपत को बेतहाशा बढ़ाया है। पानी की बढ़ती जरुरत भूजल के स्तर को लगातार कम कर रही है, वहीं उद्योगों के विषैले घोलों तथा गंदी नालियों के निकास ने नदियों को विकृत करके रख दिया है और उनकी शुद्धिकरण की आत्मशक्ति समाप्त हो गई है। कारखानों और वाहनों के गंदे धुएं और ग्रीन हाउस गैसों ने वायु मंडल को प्रदूषित कर दिया है। यह स्थिति जिस मात्रा में बिगड़ेगी, पृथ्वी पर प्राणियों का जीवन उसी मात्रा में दूभर होता चला जाएगा।
पर्यावरण के पक्ष में काफी बातें कहीं जा चुकी हैं। मैं इसके बिगाड़ से बढ़ रही प्राकृतिक आपदाओं के कारण जन-धन की हानि के लगातार बढ़ते आंकड़ों पर आपका ध्यान दिलाना चाहूंगा ताकि आप अनुभव कर सकें कि पर्यावरणीय असंतुलन तथा प्राकृतिक प्रकोपों की कितनी कीमत भारत तथा अन्य देशों को चुकानी पड़ रही है।
पर्यावरण के असंतुलन के दो मुख्य कारण हैं। एक है बढ़ती जनसंख्या और दूसरा बढ़ती मानवीय आवश्यकताएं तथा उपभोक्तावृत्ति। इन दोनों का असर प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ता है और उनकी वहनीय क्षमता लगातार कम हो रही है। पेड़ों के कटने, भूमि के खनन, जल के दुरुपयोग और वायु मंडल के प्रदूषण ने पर्यावरण को गंभीर खतरा पैदा किया है। इससे प्राकृतिक आपदाएं भी बढ़ी हैं।
पेड़ों के कटने से धरती नंगी हो रही है और उसकी मिट्टी को बांधे रखने, वर्षा की तीक्ष्ण बूंदों से मिट्टी को बचाने, हवा को शुद्ध करने और वर्षा जल को भूमि में रिसाने की शक्ति लगातार क्षीण हो रही है। इसी का परिणाम है कि भूक्षरण, भूस्खलन और भूमि का कटाव बढ़ रहा है जिससे मिट्टी अनियंत्रित होकर बह रही है। इससे पहाड़ों और ऊँचाई वाले इलाकों की उर्वरता समाप्त हो रही है तथा मैदानों में यह मिट्टी पानी का घनत्व बढ़ाकर और नदी तल को ऊपर उठाकर बाढ़ की विभीषिका को बढ़ा रही है। खनन की वजह से भी मिट्टी का बहाव तेजी से बढ़ रहा है। उद्योगों और उन्नत कृषि ने पानी की खपत को बेतहाशा बढ़ाया है। पानी की बढ़ती जरुरत भूजल के स्तर को लगातार कम कर रही है, वहीं उद्योगों के विषैले घोलों तथा गंदी नालियों के निकास ने नदियों को विकृत करके रख दिया है और उनकी शुद्धिकरण की आत्मशक्ति समाप्त हो गई है। कारखानों और वाहनों के गंदे धुएं और ग्रीन हाउस गैसों ने वायु मंडल को प्रदूषित कर दिया है। यह स्थिति जिस मात्रा में बिगड़ेगी, पृथ्वी पर प्राणियों का जीवन उसी मात्रा में दूभर होता चला जाएगा।
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