Essay on shramdaan in Marathi
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दान का अर्थ है नि:स्वार्थ भाव से बिना किसी प्रतिफल की इच्छा अथवा आशा के किसी जरूरतमंद व्यक्ति को उसकी आवश्यकता की वस्तु श्रमदान प्रदान करना। दान अनेक प्रकार का हो सकता है–रक्त दान, विद्या दान, अन्न दान, तुला दान, मुद्रा दान और श्रम दान आदि। किसी व्यक्ति अथवा समाज की महती आवश्यकता को यदि कुछ लोग मिलकर बिना पारिश्रमिक लिये शारीरिक श्रम द्वारा पूरा कर दें तो यह श्रम दान के अन्तर्गत आएगा। उदाहरणस्वरूप किसी सार्वजनिक मार्ग में उत्पन्न हुई किसी बाधा को दूर करना, पानी की निकासी की व्यवस्था करना, मार्ग बनाना अथवा सिंचाई की व्यवस्था को सरल और सुगम बनाना, सार्वजनिक स्थलों का रख-रखाव अथवा सफाई आदि में सहयोग करना सभी श्रम दान द्वारा सम्पन्न किये जा सकते हैं।
मानव के अन्तःकरण की शुद्धि के लिये शास्त्रों में अनेक मार्ग बताये गये हैं। अन्त:करण की शुद्धि से मानव हृदय में परोपकार, औदार्य, दया आदि उज्ज्वल भावनाओं का उदय स्वतः होता है। ये भावनायें ही मनुष्य को देवत्व और शुभ्रत की ओर ले जाती है। मनुष्य स्वार्थ को संकुचित सीमा को लाँघ परमार्थ की ओर अग्रसर होता है। अन्तःकरण की विशुद्धता के लिये जहाँ अनेक सात्विक मार्ग हैं, वहां श्रमदान भी एक श्रेष्ठ मार्ग है। इससे हमारा शारीरिक और मानसिक विकास होता है। हमारे हृदय में विश्व-बन्धुत्व की भावना जागृत होती है। हमें ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है।
श्रमदान भारतवर्ष की अन्य प्राचीन परम्पराओं में से एक है। प्राचीन भारत में इसका अपना एक अलग ही महत्व था। जनता सच्चे हृदय से एक-दूसरे के कामों में हाथ बंटाती थी, परस्पर सहानुभूति, सहयोग और संवेदना थी। श्रमदान का अर्थ है स्वार्थ-रहित होकर जन-कल्याण के कार्यों में अपनी अर्जित शक्तियों द्वारा पूर्णरूप से सहयोग देना। श्रमदान में राष्ट्र-हित की भावनाओं के साथ-साथ सामाजिक और अखिल विश्व की कल्याणकारी भावनाओं का समन्वय भी रहता है। श्रमदान से किसी राष्ट्र की आर्थिक स्थिति के सुधार के साथ-साथ राष्ट्र को पूर्ण शक्तिशाली बनाने में अमूल्य सहायता प्राप्त होती है।