Essay on superstition in hindi
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संसार के कोने-कोने में-चाहे वह मध्य हो या असभ्य अथवा पिछड़ा हुआ हो- समान या आंशिक रूप से अंधविश्वास प्रचलित हैं, क्योंकि मनुष्य अपने भाग्य पर अपने सारे झंझटों को छोड़कर मुक्त हो जाना चाहता है ।
जिन कार्यों को भाग्य, अवसर, तंत्र-मंत्र, टोने-टोटके के ऊपर निर्भर रहकर किया जाता है, वे सब अंधविश्वास की सीमा में आते हैं । जब मानव अपनी सीमित बुद्धि से परे कोई काम देखता है तब तुरंत वह किसी अज्ञात दैवी शक्ति पर विश्वास करने लगता है और अपनी सहायता के लिए उसका आवाहन करता है, भले ही वह अज्ञात दैवी-शक्ति उसके अंतर की ज्योति हो, फिर भी इसको सोचने-विचारने का उनके पास समय या बुद्धि है ही कहाँ ? सफलता प्राप्त होने पर संपूर्ण श्रेय उसके परिश्रम को न मिलकर उसी अज्ञात शक्ति या भाग्य को दिया जाता है ।
इस प्रकार विवेकशून्यता और भाग्यवादिता द्वारा पोषण पाकर अंधविश्वास मजबूत होते जाते हैं । जहाँ मूर्खता का साम्राज्य होता है वहाँ अंधविश्वास की तानाशाही खूब चलती हें । प्रगतिशील और वैज्ञानिक प्रकाश से आलोकित देशों में भी किसी-न-किसी तरह के अंधविश्वास प्रचलित हैं ।
अंधविश्वास कई प्रकार के होते हैं- कुछ जातिगत होते हैं, कुछ धर्म संबंधी होते है, कुछ सामाजिक होते हैं और कुछ तो ऐसे विश्वव्यापी होते हैं कि सब देशवासी उनका स्वागत करते हैं । यह वैज्ञानिक युग है । होना यह चाहिए था कि हम नए सिरे से इन रूढ़ियों के तथ्यों को ममझने का यत्न करें, पर हो यह रहा है कि हम विज्ञान को इन रूढ़ियों के अज्ञान का सहायक बना रहे हैं । यह बड़ी विडंबना है ।
दुर्भाग्य से अधिकांश भारतीय जादू-टोना, तंत्र-मंत्र एवं भाग्य पर पूर्ण विश्वास रखते हैं और इन विश्वासों की नींव इतनी गहरी है कि उसे उखाड़ना आसान नहीं है ।यात्रा में चलते समय, हल जोतते समय, खेत काटते समय, विद्यापाठ प्रारंभ करते समय- यहाँ तक कि सोते-जागते-भारतवासी शकुन और ग्रह-नक्षत्रों का विचार करते हैं ।
यदि कहीं चलते समय किसी ने जुकाम के कारण छींक दिया तो वे वहाँ जाना ही स्थगित कर देते हैं या थोड़ी देर के लिए रुक जाते हैं, क्योंकि छींक के कारण उनके काम सिद्ध होने में बाधा समझी जाती है । भरा हुआ पानी का लोटा यदि असंतुलन के कारण हाथ से गिर पड़े तो उसे वे भारी अपशकुन समझते हैं ।
अकारण सोना पाने या खो जाने को भी वे भावी आपत्ति की सूचना मानते हैं । यात्रा पर जाते समय यदि कोई टोक दे या बिल्ली रास्ता काट दे तो यात्रा स्थगित कर दी जाती है । इसी प्रकार की यात्रा के साथ दिक्शूल (दिशाशूल) का भी विचार किया जाता है ।
जिन कार्यों को भाग्य, अवसर, तंत्र-मंत्र, टोने-टोटके के ऊपर निर्भर रहकर किया जाता है, वे सब अंधविश्वास की सीमा में आते हैं । जब मानव अपनी सीमित बुद्धि से परे कोई काम देखता है तब तुरंत वह किसी अज्ञात दैवी शक्ति पर विश्वास करने लगता है और अपनी सहायता के लिए उसका आवाहन करता है, भले ही वह अज्ञात दैवी-शक्ति उसके अंतर की ज्योति हो, फिर भी इसको सोचने-विचारने का उनके पास समय या बुद्धि है ही कहाँ ? सफलता प्राप्त होने पर संपूर्ण श्रेय उसके परिश्रम को न मिलकर उसी अज्ञात शक्ति या भाग्य को दिया जाता है ।
इस प्रकार विवेकशून्यता और भाग्यवादिता द्वारा पोषण पाकर अंधविश्वास मजबूत होते जाते हैं । जहाँ मूर्खता का साम्राज्य होता है वहाँ अंधविश्वास की तानाशाही खूब चलती हें । प्रगतिशील और वैज्ञानिक प्रकाश से आलोकित देशों में भी किसी-न-किसी तरह के अंधविश्वास प्रचलित हैं ।
अंधविश्वास कई प्रकार के होते हैं- कुछ जातिगत होते हैं, कुछ धर्म संबंधी होते है, कुछ सामाजिक होते हैं और कुछ तो ऐसे विश्वव्यापी होते हैं कि सब देशवासी उनका स्वागत करते हैं । यह वैज्ञानिक युग है । होना यह चाहिए था कि हम नए सिरे से इन रूढ़ियों के तथ्यों को ममझने का यत्न करें, पर हो यह रहा है कि हम विज्ञान को इन रूढ़ियों के अज्ञान का सहायक बना रहे हैं । यह बड़ी विडंबना है ।
दुर्भाग्य से अधिकांश भारतीय जादू-टोना, तंत्र-मंत्र एवं भाग्य पर पूर्ण विश्वास रखते हैं और इन विश्वासों की नींव इतनी गहरी है कि उसे उखाड़ना आसान नहीं है ।यात्रा में चलते समय, हल जोतते समय, खेत काटते समय, विद्यापाठ प्रारंभ करते समय- यहाँ तक कि सोते-जागते-भारतवासी शकुन और ग्रह-नक्षत्रों का विचार करते हैं ।
यदि कहीं चलते समय किसी ने जुकाम के कारण छींक दिया तो वे वहाँ जाना ही स्थगित कर देते हैं या थोड़ी देर के लिए रुक जाते हैं, क्योंकि छींक के कारण उनके काम सिद्ध होने में बाधा समझी जाती है । भरा हुआ पानी का लोटा यदि असंतुलन के कारण हाथ से गिर पड़े तो उसे वे भारी अपशकुन समझते हैं ।
अकारण सोना पाने या खो जाने को भी वे भावी आपत्ति की सूचना मानते हैं । यात्रा पर जाते समय यदि कोई टोक दे या बिल्ली रास्ता काट दे तो यात्रा स्थगित कर दी जाती है । इसी प्रकार की यात्रा के साथ दिक्शूल (दिशाशूल) का भी विचार किया जाता है ।
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संसार के कोने-कोने में-चाहे वह मध्य हो या असभ्य अथवा पिछड़ा हुआ हो- समान या आंशिक रूप से अंधविश्वास प्रचलित हैं, क्योंकि मनुष्य अपने भाग्य पर अपने सारे झंझटों को छोड़कर मुक्त हो जाना चाहता है ।
जिन कार्यों को भाग्य, अवसर, तंत्र-मंत्र, टोने-टोटके के ऊपर निर्भर रहकर किया जाता है, वे सब अंधविश्वास की सीमा में आते हैं । जब मानव अपनी सीमित बुद्धि से परे कोई काम देखता है तब तुरंत वह किसी अज्ञात दैवी शक्ति पर विश्वास करने लगता है और अपनी सहायता के लिए उसका आवाहन करता है, भले ही वह अज्ञात दैवी-शक्ति उसके अंतर की ज्योति हो, फिर भी इसको सोचने-विचारने का उनके पास समय या बुद्धि है ही कहाँ ? सफलता प्राप्त होने पर संपूर्ण श्रेय उसके परिश्रम को न मिलकर उसी अज्ञात शक्ति या भाग्य को दिया जाता है ।
इस प्रकार विवेकशून्यता और भाग्यवादिता द्वारा पोषण पाकर अंधविश्वास मजबूत होते जाते हैं । जहाँ मूर्खता का साम्राज्य होता है वहाँ अंधविश्वास की तानाशाही खूब चलती हें । प्रगतिशील और वैज्ञानिक प्रकाश से आलोकित देशों में भी किसी-न-किसी तरह के अंधविश्वास प्रचलित हैं ।
अंधविश्वास कई प्रकार के होते हैं- कुछ जातिगत होते हैं, कुछ धर्म संबंधी होते है, कुछ सामाजिक होते हैं और कुछ तो ऐसे विश्वव्यापी होते हैं कि सब देशवासी उनका स्वागत करते हैं । यह वैज्ञानिक युग है । होना यह चाहिए था कि हम नए सिरे से इन रूढ़ियों के तथ्यों को ममझने का यत्न करें, पर हो यह रहा है कि हम विज्ञान को इन रूढ़ियों के अज्ञान का सहायक बना रहे हैं । यह बड़ी विडंबना है ।
दुर्भाग्य से अधिकांश भारतीय जादू-टोना, तंत्र-मंत्र एवं भाग्य पर पूर्ण विश्वास रखते हैं और इन विश्वासों की नींव इतनी गहरी है कि उसे उखाड़ना आसान नहीं है ।यात्रा में चलते समय, हल जोतते समय, खेत काटते समय, विद्यापाठ प्रारंभ करते समय- यहाँ तक कि सोते-जागते-भारतवासी शकुन और ग्रह-नक्षत्रों का विचार करते हैं ।
यदि कहीं चलते समय किसी ने जुकाम के कारण छींक दिया तो वे वहाँ जाना ही स्थगित कर देते हैं या थोड़ी देर के लिए रुक जाते हैं, क्योंकि छींक के कारण उनके काम सिद्ध होने में बाधा समझी जाती है । भरा हुआ पानी का लोटा यदि असंतुलन के कारण हाथ से गिर पड़े तो उसे वे भारी अपशकुन समझते हैं ।
अकारण सोना पाने या खो जाने को भी वे भावी आपत्ति की सूचना मानते हैं । यात्रा पर जाते समय यदि कोई टोक दे या बिल्ली रास्ता काट दे तो यात्रा स्थगित कर दी जाती है । इसी प्रकार की यात्रा के साथ दिक्शूल (दिशाशूल) का भी विचार किया जाता है
यदि किसी ग्रामीण किसान की गाय या भैंस दूध देना बंद कर दे तो वे किसी पशु चिकित्सक के पास जाने के बजाय पंडितजी महाराज से ग्रह-दशा पूछने लगते हैं या फिर टोने-टोटके करने लगते हैं, जिनका गाय के दूध न देने से स्वप्न में भी कोई संबंध सिद्ध नहीं हो सकता ।
यहाँ के अशिक्षितों को जाने दीजिए, अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे लोगों के मस्तिष्क में भी अंधविश्वासों इतना घर कर गया है । आश्चर्य की बात तो यह है कि अंधविश्वासों में उन्हें कभी-कभी भारी लाभ हो जाता है । पता नहीं, इसमें कोई मनोवैज्ञानिक रहस्य है या कुछ और है ? मैं एक आपबीती बता रहा हूँ ।
मुझे अद्धागी हो गई थी । इसमें शरीर के आधे भाग में छोटे-छोटे दाने निकलते हैं । लोगों का कहना हें कि यदि उनका ठीक इलाज न किया गया तो वे आधे शरीर में पैर से लेकर चोटी नक हो जाते हैं; दाने बहुत ही पीड़ा पहुँचाते हैं ।
रोग प्रतिदिन सवा गुना बढ़ता ही जाता है । विश्वविद्यालय की डिस्पेंसरि में तथा और भी कई स्थानों पर अच्छे कुशल डॉक्टरों से दवा कराई, किंतु दाने घटने के बजाय बढ़ते ही चले गए । विवश होकर मैं अपने घर चित्रकूट चला गया । वहाँ अपने इस विचित्र रोग की चर्चा पास-पड़ोस में की ।
सौभाग्य से इस रोग की दवा करनेवाला एक कुम्हार मिल गया । वह केवल जंगल से बीने हुए उपलों की राख से रोग को ठीक करता था । मैं तो इसे एक खिलवाड़ समझता रहा, किंतु आश्चर्य तो तब हुआ जब उसके एक बार राख के लगाने से सारे दाने लाजवंती की तरह लजाकर मुरझा गए । वह राख लगाने के साथ कुछ मंत्र भी पड़ता जाता था ।
तर्क का आश्रय लेने पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि खुले आकाश के नीचे गाय का गोबर, जो अपने आप सूखकर उपले के रूप में बदल जाता है, उसी में कुछ-न-कुछ वैज्ञानिक तथ्य होगा । पता नहीं मैं कहाँ तक सही हूँ ! पीलिया रोग की दवा भी बहुत कुछ झाड़-फूँक पर आधारित है और वह आश्चर्यजनक रूप से लाभ पहुँचाती है । हो सकता है, इसमें मनोविज्ञान का दृढ़ विश्वास संबंधी तथ्य छुपा हो । कहा भी गया है:
”यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।”
आज का युग विज्ञान का युग है । इसमें प्रत्येक बात तर्क की कसौटी पर कसी जाती है । गाय के दूध न देने पर विज्ञानी तुरंत यह विचार करता है कि किन कारणों से इस प्रकार का व्यवधान उपस्थित हुआ है । उन कारणों का पता लगा लेने पर वह दवा द्वारा उन्हें ठीक करने का प्रयत्न करता है । गाय के शरीर में जिन पौष्टिक तत्त्वों की कमी हो गई है, उन्हें पौष्टिक भोजन और औषधि से पूरा किया जाएगा ।
जिन कार्यों को भाग्य, अवसर, तंत्र-मंत्र, टोने-टोटके के ऊपर निर्भर रहकर किया जाता है, वे सब अंधविश्वास की सीमा में आते हैं । जब मानव अपनी सीमित बुद्धि से परे कोई काम देखता है तब तुरंत वह किसी अज्ञात दैवी शक्ति पर विश्वास करने लगता है और अपनी सहायता के लिए उसका आवाहन करता है, भले ही वह अज्ञात दैवी-शक्ति उसके अंतर की ज्योति हो, फिर भी इसको सोचने-विचारने का उनके पास समय या बुद्धि है ही कहाँ ? सफलता प्राप्त होने पर संपूर्ण श्रेय उसके परिश्रम को न मिलकर उसी अज्ञात शक्ति या भाग्य को दिया जाता है ।
इस प्रकार विवेकशून्यता और भाग्यवादिता द्वारा पोषण पाकर अंधविश्वास मजबूत होते जाते हैं । जहाँ मूर्खता का साम्राज्य होता है वहाँ अंधविश्वास की तानाशाही खूब चलती हें । प्रगतिशील और वैज्ञानिक प्रकाश से आलोकित देशों में भी किसी-न-किसी तरह के अंधविश्वास प्रचलित हैं ।
अंधविश्वास कई प्रकार के होते हैं- कुछ जातिगत होते हैं, कुछ धर्म संबंधी होते है, कुछ सामाजिक होते हैं और कुछ तो ऐसे विश्वव्यापी होते हैं कि सब देशवासी उनका स्वागत करते हैं । यह वैज्ञानिक युग है । होना यह चाहिए था कि हम नए सिरे से इन रूढ़ियों के तथ्यों को ममझने का यत्न करें, पर हो यह रहा है कि हम विज्ञान को इन रूढ़ियों के अज्ञान का सहायक बना रहे हैं । यह बड़ी विडंबना है ।
दुर्भाग्य से अधिकांश भारतीय जादू-टोना, तंत्र-मंत्र एवं भाग्य पर पूर्ण विश्वास रखते हैं और इन विश्वासों की नींव इतनी गहरी है कि उसे उखाड़ना आसान नहीं है ।यात्रा में चलते समय, हल जोतते समय, खेत काटते समय, विद्यापाठ प्रारंभ करते समय- यहाँ तक कि सोते-जागते-भारतवासी शकुन और ग्रह-नक्षत्रों का विचार करते हैं ।
यदि कहीं चलते समय किसी ने जुकाम के कारण छींक दिया तो वे वहाँ जाना ही स्थगित कर देते हैं या थोड़ी देर के लिए रुक जाते हैं, क्योंकि छींक के कारण उनके काम सिद्ध होने में बाधा समझी जाती है । भरा हुआ पानी का लोटा यदि असंतुलन के कारण हाथ से गिर पड़े तो उसे वे भारी अपशकुन समझते हैं ।
अकारण सोना पाने या खो जाने को भी वे भावी आपत्ति की सूचना मानते हैं । यात्रा पर जाते समय यदि कोई टोक दे या बिल्ली रास्ता काट दे तो यात्रा स्थगित कर दी जाती है । इसी प्रकार की यात्रा के साथ दिक्शूल (दिशाशूल) का भी विचार किया जाता है
यदि किसी ग्रामीण किसान की गाय या भैंस दूध देना बंद कर दे तो वे किसी पशु चिकित्सक के पास जाने के बजाय पंडितजी महाराज से ग्रह-दशा पूछने लगते हैं या फिर टोने-टोटके करने लगते हैं, जिनका गाय के दूध न देने से स्वप्न में भी कोई संबंध सिद्ध नहीं हो सकता ।
यहाँ के अशिक्षितों को जाने दीजिए, अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे लोगों के मस्तिष्क में भी अंधविश्वासों इतना घर कर गया है । आश्चर्य की बात तो यह है कि अंधविश्वासों में उन्हें कभी-कभी भारी लाभ हो जाता है । पता नहीं, इसमें कोई मनोवैज्ञानिक रहस्य है या कुछ और है ? मैं एक आपबीती बता रहा हूँ ।
मुझे अद्धागी हो गई थी । इसमें शरीर के आधे भाग में छोटे-छोटे दाने निकलते हैं । लोगों का कहना हें कि यदि उनका ठीक इलाज न किया गया तो वे आधे शरीर में पैर से लेकर चोटी नक हो जाते हैं; दाने बहुत ही पीड़ा पहुँचाते हैं ।
रोग प्रतिदिन सवा गुना बढ़ता ही जाता है । विश्वविद्यालय की डिस्पेंसरि में तथा और भी कई स्थानों पर अच्छे कुशल डॉक्टरों से दवा कराई, किंतु दाने घटने के बजाय बढ़ते ही चले गए । विवश होकर मैं अपने घर चित्रकूट चला गया । वहाँ अपने इस विचित्र रोग की चर्चा पास-पड़ोस में की ।
सौभाग्य से इस रोग की दवा करनेवाला एक कुम्हार मिल गया । वह केवल जंगल से बीने हुए उपलों की राख से रोग को ठीक करता था । मैं तो इसे एक खिलवाड़ समझता रहा, किंतु आश्चर्य तो तब हुआ जब उसके एक बार राख के लगाने से सारे दाने लाजवंती की तरह लजाकर मुरझा गए । वह राख लगाने के साथ कुछ मंत्र भी पड़ता जाता था ।
तर्क का आश्रय लेने पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि खुले आकाश के नीचे गाय का गोबर, जो अपने आप सूखकर उपले के रूप में बदल जाता है, उसी में कुछ-न-कुछ वैज्ञानिक तथ्य होगा । पता नहीं मैं कहाँ तक सही हूँ ! पीलिया रोग की दवा भी बहुत कुछ झाड़-फूँक पर आधारित है और वह आश्चर्यजनक रूप से लाभ पहुँचाती है । हो सकता है, इसमें मनोविज्ञान का दृढ़ विश्वास संबंधी तथ्य छुपा हो । कहा भी गया है:
”यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।”
आज का युग विज्ञान का युग है । इसमें प्रत्येक बात तर्क की कसौटी पर कसी जाती है । गाय के दूध न देने पर विज्ञानी तुरंत यह विचार करता है कि किन कारणों से इस प्रकार का व्यवधान उपस्थित हुआ है । उन कारणों का पता लगा लेने पर वह दवा द्वारा उन्हें ठीक करने का प्रयत्न करता है । गाय के शरीर में जिन पौष्टिक तत्त्वों की कमी हो गई है, उन्हें पौष्टिक भोजन और औषधि से पूरा किया जाएगा ।
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