essay on upbhoktawad ki sanskriti !!!! Some main points
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‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ निबंध की शुरुआत उत्पादन, उपभोग, ‘सुख’ और चरित्र के अंतर्संबंधों की व्याख्या से होती है। दुबे जी इस संबंध पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि उपभोग को ही ‘सुख’ मान लिया गया है। इस धारणा के चलते हमारा चरित्र भी बदल रहा है। हम उत्पादन को ही जीवन का लक्ष्य मानने लगे हैं।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मानव संस्कृति उत्पादन और जरूरत के बीच संतुलन बनाकर विकसित होती रही है। जरूरत से अलग उत्पादन हमारे समाज को नए ढ़ग से गढ़ता है। हम जरूरत के बजाय विलासिता की गिरफ्त में आ जाते हैं और उत्पादन बढ़ाने की वकालत करने लगते हैं। ऐसी स्थिति में दैनिक जीवन नए उत्पादों की तलाश में लग जाता है और हम उत्पादों के माध्यम से ही अपनी रोजमर्रा की समस्याओं का निदान खोजने लगते हैं। यानी, उत्पाद हमारे जीवन में एक निर्विकल्प स्थिति पैदा करता है। दुबे अपने निबंध में ऐसी तमाम वस्तुओं का उल्लेख करते हैं जो हमें दैनिक जीवन में अपरिहार्य लगती हैं और वे यह एहसास रचती हैं कि इनके बिना शायद जीवन संभव ही नहीं। इसमें वे टूथपेस्ट, साबुन, परफ्यूम, तेल, परिधान, म्यूजिक सिस्टम, पाँच सितारा होटल और अस्पताल, पब्लिक स्कूल आदि की चर्चा तो करते ही हैं और यहाँ तक कि मरने के बाद अपनी कब्र की सजावट तक के इंतजाम को भी उद्धृत करते हैं। उनका तर्क है कि उपभोग की वस्तुओं पर एक विशिष्ट समुदाय का कब्जा है लेकिन सामान्य लोग भी उसे लालसा भरी निगाहों से देखते हैं। भारत के एक अन्य समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास की ‘संस्कृतीकरण’ की अवधारणा इस सिलसिले में दृष्टव्य है। उनका मानना है कि शिष्ट समाज की जीवन शैली की नकल आम लोग बहुधा करने लगते हैं। श्यामाचरण जी उपभोक्तावादी संस्कृति के संदर्भ में सामान्य लोगों की इसी प्रवृत्ति का संकेत करते हैं। समाज का जागरूक वर्ग जब उपभोग की ओर उन्मुख हो जाता है तो आम आदमी भी इसे ही सही मानने लगता है और उपभोक्तावाद अपनी जड़े जमाने में सक्षम हो जाता है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।
निबंध के विचारों को आगे बढ़ाते हुए प्रो. दुबे भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति के कारणों को विश्लेषित करते हैं। वे इसकी जड़ हमारी सामंती संस्कृति में तलाशते हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति को वे सामंती संस्कृति के बदले हुए मुहावरे के रूप में चिन्हित करते हैं। सामंती संस्कृति भी मूलत: उपभोग पर ही आधारित थी। लेकिन जहाँ उसकी गिरफ्त में कुछ अभिजन ही आते थे वहीं उपभोक्तावादी संस्कृति आम आदमी के चरित्र और मनोविज्ञान को बदल कर रख दे रही है। इस कारण हम पश्चिम की जीवन शैली के गुलाम बन रहे हैं बल्कि हमारा यह बोध भी मर गया है कि पश्चिम से अलग अन्य कोई जीवन-शैली भी हो सकती है। उपभोक्तावाद ने हमें दिमागी रूप से दास बना लिया है जिसके चलते हम प्रगाति और विकास को उपभोग की जानी वाली वस्तुओं से सीधे जोड़ने लगे हैं। कहने का अर्थ यह कि यदि हम पंच सितारा अस्पताल में अपना इलाज कराते हैं तो हम विकसित समझे जाएँगे और अगर देसी औषधियों से ठीक हो जाएँ तो पिछड़े। उपभोक्तावाद हमारी जरूरत ही नहीं हमारे नजरिए को भी बदल देता है। हम अपने ज्ञान, प्रतिभा, कौशल, परंपरा, अनुभव और आस्था पर भरोसा न कर पश्चिमी जीवन-दर्शन को प्रामाणिक मानने लगते हैं और उसका अंधा अनुकरण करते हैं।श्यामाचरण जी इस अनुकरण के लिए सूचना और प्रसार माध्यमों के प्रयोग और उनकी मोहनकारी शक्ति को जवाबदेह ठहराते हैं। यह बात ठीक भी है कि इन माध्यमों के अभाव में और विज्ञापन के बिना उपभोक्तावादी संस्कृति पनप नहीं सकती। विज्ञापन तो जैसे इस संस्कृति की प्राण वायु है। उपभोक्तावर्ग के निर्माण में विज्ञापन सबसे सक्रिय भूमिका निभाता है। उपभोग का लालच परोसता है और जो लोग उपभोग से दूर रहते हैं उनमें कुंठा का प्रसार करता है। इस प्रकार विज्ञापन सामाजिक विभाजन को जन्म देता है तथा उपभोक्तावर्ग और गैर-उपभोक्तावर्ग के बीच वैमनस्य बढ़ाता है। लेखक अपने विचार-सूत्र को आगे बढ़ाते हुए एक प्रश्न करता है कि आखिर इस संस्कृति की दौड़ कहाँ समाप्त होगी। क्या समाज का एक वर्ग जो वंचित रहेगा वह कोई प्रतिरोध नहीं करेगा और यदि उसका प्रतिरोध होता है तो उसका परिणाम क्या निकलेगा। लेखक उपभोक्तावादी संस्कृति को भी वर्ग-विभेद और गैर-समतामूलक समाज के निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण कारक मानता है।इसका एक निश्चित परिणाम सामाजिक अशांति है इसलिए लेखक का दृढ़ मत है कि उपभोक्ता संस्कृति मानव समाज के लिए ग्राह्य नहीं हो सकती।
वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि के विकास के साथ यह मान लिया गया था कि संसाधन असीमित है और इनका दोहन कर मानवता का कल्याण किया जा सकता है। अब यह विचार तो संदिग्ध हो चुका है लेकिन इससे जो सीख हमें लेनी थी वह हम नहीं ले रहें हैं।
यह सिद्ध हो चुका है कि हमारे तमाम संसाधन सीमित है ओर यदि इनका उपयोग वर्तमान पीढ़ी ही कर लेगी तो आने वाली पीढि़याँ इससे वंचित रह जाएँगी। उपभोक्तावादी संस्कृति वर्तमान उपभोग को अधिकाधिक बढ़ाना चाहती है जिससे बड़ा मुनाफा अभी कमाया जा सके। इसलिए यह क्षणजीवी संस्कृति है। भविष्य के खतरों से बेसुध।
उपभोक्ता संस्कृति का विवेचन करते हुए प्रो. दुबे इसके एक और महत्वपूर्ण पहलू को उजागर करते हैं। वह है इस संस्कृति में निहित व्यक्ति केन्द्रिता। कोई भी संस्कृति परमार्थ के मूल्य से अलग नहीं हो सकती लेकिन उपभोक्तावादी संस्कृति तो आत्म तुष्टि की ही पोषक है। स्वार्थ और स्वापभोग को बढ़ावा देना ही उसका मुख्य सरोकार है। लेखक ने निबंध का समापन करते हुए गाँधी जी के हवाले से कहा है कि हमें विभिन्न संस्कृतियों के लिए अपने द्वार खुले रख्ने चाहिए पर उपभोक्ता संस्कृति हमारे समाज और संस्कृति के लिए सबसे बड़ा खतरा और चुनौती है। उपरोक्त विश्लेषण यह दर्शाता है कि प्रो. दुबे उपभोक्तावादी संस्कृति को भारतीय समाज के लिए एक चुनौती मानते हैं। विषम समाज, आपसी विद
mrmukulran:
hi
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yes kesne braya ki isme gathi aayege
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