Essay on विद्यार्थी जीवन और पुस्तकालय | Vidyarthi Jeevan Aur Pustakalay | Student life and Library
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अगर अध्ययन क्षेत्र एक रणांगण है तो पुस्तकें शक्तिशाली हथियार| पुस्तकालय वो स्थान है जहाँ विविध प्रकार की पुस्तकें संग्रहीत व पठित की जाती है| इस प्रकार विद्यार्थी जीवन में पुस्तकालय एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान है| जहाँ उसे ज्ञान का अथाह भंडार मिलता है| सफलता का कोई संक्षिप्त मार्ग नहीं होता| इसके लिए सतत कठिन परिश्रम करना पड़ता है| अगर कोई विद्यार्थी सचमुच उच्च कोटि का ज्ञानार्जन करना चाहता है तो उसे पुस्तकों की आवश्यकता पड़ेगी| आजकल ज्यादातर विद्यार्थी बाजार से ऐसी सीरीज ले आते है जो उन्हें उतीर्ण भर करवाने में उपयोगी होती है| वो इसी से संतुष्ट हो जाते है| ये स्थायी ज्ञान नहीं होता| अगर उच्चतम ज्ञान प्राप्त करना है तो विद्यार्थी को पुस्तकों से दोस्ती करनी होगी जो उसे पुस्तकालय में उपलब्ध होगी| पुस्तकालय वो निष्पक्ष स्थान है जहाँ आपकी आयु, वर्ग, लिंग, आर्थिक स्थिति न देखकर आपकी जिज्ञासा के आधार पर पुस्तकें उपलब्ध करवाई जाती है\ प्रत्येक स्कूल व कालेज में छोटा ही सही पुस्तकालय अवश्य होता है| वहां बुक बैंक भी होता है जहाँ से विद्यार्थी वर्ष भर के लिए न्यूनतम मूल्य पर कोर्स की किताबें ले सकते हैं| पुस्तकालय सार्वजनिक भी होते हैं जहाँ के सदस्य बनकर हम नियमित रूप से पुस्तकें उधार ले सकते है| आजकल इ-लाइब्रेरी भी प्रचलन में हैं और लोकप्रिय भी हो रही है| लेकिन पुस्तकालय के वातावरण में अलग सी शांति और स्पंदन होते हैं| वहां बैठकर एक ही विषय पर अनेक लेखकों के विचार पढकर उसका सार लिखने का आनंद वर्णनातीत हैं| ये वो आनंद हैं जिसे वही महसूस कर सकता है जिसने ऐसा अध्ययन व्यवहार में किया हो| पुस्तकें वो मूक मार्गदर्शक हैं जो पढने वाले को कभी नहीं छोडती, सही शिक्षा देती है, चोबीसों घंटे उसकी सेवा में तत्पर रहती है| न कभी झगडती है न कभी नाराज होती है| आजकल युवाओं में पुस्तकालय जाने की आदत लुप्त-सी हो गई है| नि:संदेह इसका दुष्प्रभाव भी हुआ है| वर्तमान पीढ़ी उतनी सच्चरित्र और समर्पित नहीं रही| निष्कर्षत: विद्यार्थी जीवन का पूरक है पुस्तकालय| अगर अपने अध्ययन बिन्दुओं को विस्तार से समझना हैं और सदा के लिए याद रखना है तो हमें फिर से पुस्तकालय में नियमित जाने की आदत विकसित करनी होगी|
मनुष्य के जीवन का वह समय, जो शिक्षा प्राप्त करने में व्यतीत होता है, ‘विद्यार्थी जीवन’ कहलाता है। यों तो मनुष्य जीवन के अंतिम क्षणों तक कुछ न कुछ शिक्षा ग्रहण करता ही रहता है। परंतु उसके जीवन में नियमित शिक्षा की ही अवधि निश्चित अवधि थी। मनुष्य का संपूर्ण जीवन सौ वर्षों का माना जाता था। पूरे जीवन को कार्य की दृष्टि से चार भागों में बांटा गया था। ब्रह्चर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। यह पहला ब्रह्चर्य-काल ही विद्यार्थी जीवन माना जाता था।