फादर को ज़हरबाद सेनह ीं मरना चाहहए था। हिसक रगोीं मेंदू सरोीं के हिए हमठास भरे अमृत के
अहतररक्त और कु छ नह ींथा उसके हिए इस ज़हर का हिधान क्ोींहो? यह सिाि हकस ईश्वर सेपूछें? प्रभु
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ि) िेिक को ऐसा क्ोींिगता हैहक फादर क मृत्युज़हरबाद सेनह ींहोन चाहहए थ ? ग) 'देहर ' शब्द का एक समानाथथक शब्द हिस्तिए।
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‘जिसेट संघ’ में धर्माचार की शिक्षा दी जाती हैऔर फादर वहाँ दो वर्षों तक रहे।
संन्यास लेते समय उन्होंने भारत जाने की शर्त रखी थी। उनके मन में भारतीय संस्कृति और सभ्यता के प्रति लगाव था | संभवतया वे यहाँ अनेकता में एकता की संस्कृति से प्रभावित हुए होंगे |
संन्यासी बनने से पूर्व फादर बुल्के इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में अध्ययन कर रहे थे | संन्यास लेने के लिए वे धर्मगुरु के पास गए ।
फ़ादर कामिल बुल्के का देहान्त 18 अगस्त,1982 को हुआ था। दिल्ली में कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में उन्हें दफनाया गया था। उनकी अंतिम यात्रा में ढेर सारे सम्मानित और हिंदी जगत के प्रबुद्ध लोग उपस्थित थे। इनमें डॉ विजयेन्द्र स्नातक,डॉ सत्यप्रकाश और डॉ रघुवंश आदि की उपस्थिति उनके व्यक्तित्व की श्रेष्ठता और महत्वपूर्ण योगदान का प्रमाण है।
फ़ादर की मृत्यु एक प्रकार के ज़हरीले फोड़े अर्थात जहरबाद (गैंग्रीन) से हुई थी। फादर के मन में सदैव दूसरों के लिए प्रेम व अपनत्व की भावना थी ।ऐसे सौम्य व स्नेही व्यक्ति की ऐसी दर्दनाक मृत्यु होना उनके साथ अन्याय है इसलिए लेखक ने कहा है कि “फादर को जहरबाद से नहीं मरना चाहिए था।”
फादर कामिल बुल्के का हिंदी के प्रति चिंतित होना स्वभाविक था क्योंकि हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा का गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हो सका था। वे जहां कहीं भी वक्तव्य देते अपने इस चिंता को अवश्य प्रकट करते थे। वे इस बात को उठाते हुए अपनी वेदना प्रकट करते थे। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए उचित तर्क भी देते थे। उन्हें आश्चर्य भी होता था की हिंदी को अपने ही देश में उचित स्थान नहीं मिल पा रहा था, स्वयं हिंदी भाषियों द्वारा हिंदी के साथ की जाने वाली उपेक्षा उनका दुख बढ़ा देती थी। हिंदी वालों द्वारा हिंदी का अनादर और उपेक्षा किए जाने पर उनके मन में चीख सुनाई देती थी जिसको हर मंच पर सुना जा सकता था।
बेल्जियम
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