फसलों के गहरे हरे रंग के कारण धरती का रंग
कैसा लगता है?
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Answer:
अवश्य ही वृक्ष का मूल कारण बीज है, किंतु यह भी सत्य है कि वह 'एक मात्र' कारण नहीं है। सूर्य, चंद्र, मेघ, ॠतु, वायु एवं सम्पूर्ण प्रकृति उसके सहकारी कारण हैं। धरती और बीज की प्रक्रिया एकांत-प्रक्रिया नहीं है, उसका संबंध प्रकृति की सम्पूर्ण प्रक्रिया से है। धरती और बीज की प्रक्रिया सम्पूर्ण प्रकृति की प्रक्रिया के साथ घटित होती है। धरती और बीज की प्रक्रिया की इस सापेक्षता को जनपदीयजन भली भाँति पहचानता है। इस संबंध में एक कहानी कही जाती है।
"कभी आँधी तो कभी तूफान, कभी लू तो कभी हड़कंप बयार, कभी जेठ की कड़कती धूप, तो कभी थरथर कँपा देनेवाली रात, कभी ओले तो कभी मूसलाधार वर्षा, रोज-रोज की परेशानी। किसान बोला-'कैसा है यह विधाता ! कोई न कोई उत्पात करता ही रहता है।' विधाता किसान की यह बात सुन रहा था, किसान से बोला-'प्रकृति के संचालन का काम एक वर्ष के लिए तुम सम्हाल लो, इससे मुझे भी थोड़ा अवकाश मिल जाएगा।'
Explanation:
वृक्ष-वनस्पतियों का हवा से गहरा संबंध है। चैत में लोटती हुई 'पुरवइया' हवा चले तो आम 'लसिया' जाता है (आम का लस पत्तियों पर बह जाता है, जिससे वह गर्भ धारण नहीं कर पाता)। चैत की 'पुरवइया' महुआ के लिए अनुकूल है, लौका भी 'पुरवइया हवा' में अधिक उपजता है पर 'पछुवा' (पछइयाँ अथवा पश्चिमी) हवा चले तो करेला काना हो जाता है, उसमें गिराड़ पड़ जाती है। पछइयाँ हवा में खरबूज-तरबूज खूब होते हैं, लौका कम उपजता है।
यदि गेहूँ में दाना पड़ते समय 'पुरवइया' चले तो दाना मोटा पड़ेगा और 'पछइयाँ' चले तो गेहूँ हलका होगा। इसके विपरीत गेहूँ के पकते समय पछइयाँ हवा आवश्यक है। जो गेहूँ पुरवा से दस दिन में पकेगा वह पछइयाँ से दो दिन में ही पक जाएगा। 'हाड़ा' और 'उत्तरा' हवा से गेहूँ उखड़ जाता है। पानी देते समय 'हाड़ा' या 'उत्तरा' चल जाए तो गेहूँ लेट जाएगा और फसल नष्ट हो जाएगी। 'पुरवइया' और 'हाड़ा' से फुलवार की खेती में 'लुटलुटी' पैदा हो जाती है। 'पालेज' के लिए 'पछवा' अच्छी होती है। 'हाड़ा' पेड़ को सुखा देती है, उस पर ओस नहीं जमने देती, जोकि जरुरी है।
जेठ के महीने में 'झाँख' और 'लू' चलती है, जिससे खरबूज-तरबूज और फालसे मीठे हो जाते हैं। सावन के महीने में चलनेवाली 'पुरवइया' आधि-व्याधि लाने वाली हवा है। यदि यह लगातार आठ दिन तक चले तो ज्वार, बाजरा, मक्का और कपास के पौधों का बिछौना बिछ जाता है-"जौहर पै है बहरा, मक्का बचै न बाजरा।" भादों में चलनेवाली पछइयाँ भी आधि-व्याधि लानेवाली है। पौष और माघ में लपेटा मारकर दिशा बदलकर चलनेवाली 'चौवाई' हवा के चलने से जौ और गेहूँ का जाना 'पिच्ची' (पिचक जाना) हो जाता है।
'पुरवइया' हवा आम-तौर पर ठंडी होती है तथा नमी लाती है। पश्चिमी हवा गर्म होती है और पहाड़ों की उपजाऊ मिट्टी आँधी के द्वार खेतों में पहुँचाती है। उत्तरी हवा भी अच्छी मिट्टी लाती है। पश्चिमी हवा कार्तिक एवं मार्गशीर्ष में ठंडी चलती है तथा चैत-वैशाख और जेठ में गर्म, आषढ़-श्रावण और क्वार में किसी गर्म तो कभी ठंडी। 'पछइयाँ' हवा में पौधा धीरे-धीरे उठता है, यह पत्तों को सुखानेवाली हवा है। (रेखाचित्र-७)।

रेखाचित्र-७ : दिशा एवं कोण के आधार पर हवाओं के जनपदीय नाम
४. अर्थदेव का वाक्य है कि जब यह प्राण अपनी महती गर्जना (मेघ गर्जना) द्वारा अपना संदेश औषधियों से कहता है, तब वे गर्भ धारण करती हैं।-६ आषाढ़ में बादल गरजता है, बूँदें पड़ती हैं और धरती के गर्भ में सोये बीज जग जाते हैं और देखते-देखते धरती पर हरी मखमल बिछ जाती है। धरती और बीज के साथ वर्षा का यह संबंध है। जहाँ वर्षा वृक्षों का जीवन है वहाँ वृक्ष भी वर्षा का आकर्षणकेंद्र है। वर्षा और वृक्ष का यह अविच्छिन्न संबंध है। आजकल हम देख रहे हैं कि वृक्षों की अंधाधुंध कटाई हुई है और इसी के साथ वर्षा का चक्र भी विचलित हो गया है। नहर, नदी और ट्यूबवैल से सिंचाई की पद्धतियाँ विकसित की गयी हैं पर इनमें से कोई भी विकल्प नहीं है, क्योंकि नदी, नजर, जलाशय, कुआँ आदि भी तो वर्षा पर आधारित हैं तथा वर्षा के अभाव में जलस्तर नीचे उतर जाता है, स्त्रतोत सूख जाते हैं। इसलिए किसान के मन में वर्षा की चिंता रहती है। उसकी आँखें बादलों पर टिकी रहती हैं। परंपरागत अनुभव के आधार पर उसने वर्षा का लोकशास्र विकसित किया है, जो मेघ और वर्षा संबंधी कहावतों में अभिव्यक्त हुआ है। किसान के पास कोई उपग्रह नहीं था, जिसके आधार पर वह मौसम की भविष्यवाणी करता। उसने वर्षा की संभावना को पढ़ने के लिए दिशा, वायु, दिन, रात, तिथि, वार, नक्षत्र, सूरज, चंदा, सितारे, बादलों के रंग, इंद्रधनुष, बिजली, गर्मी, सर्दी, मेघ गर्जना, पशु, पक्षी, कृमि, सरीसृप तथा वृक्ष-वनस्पतियों की उस लिपि को सीखा, जो प्रकृति के फलक पर लिखी हुई है।-७ इस लिपि को पढ़कर ही उसने प्रकृति के इस सत्य को जाना है कि प्रकृति में कुछ भी विच्छिन्न नहीं है, सबका सबसे अन्योन्य और अविच्छिन्न संबंध हैं।