फटी पुस्तक की आत्मकथा
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फटी पुस्तक की आत्मकथा
मैं एक फटी हुई पुस्तक हूं जो कभी बिल्कुल नई हुआ करती थी। जब मैं नई थी तब मुझे मेरा मालिक अच्छे से रखता था और मुझे पढ़ता भी था। मगर ज्यों-ज्यों मैं बड़ी होने लगी मेरे मालिक का ध्यान मुझमें से हटता गया और धीरे धीरे वह मेरी कदर करना छोड़ता गया।
मुझे सही ढंग से ना रखने की वजह से मेरा स्वरूप बिगड़ता गया और मेरी हालत खराब होती चली गई। इस प्रकार में जगह-जगह से फटने लगी और मेरे कई पन्ने भी निकलते चले गए। इसके साथ उन पन्नों का ज्ञान भी मुझमें से निकल गया और मैं पहले से कम ज्ञान को संरक्षित करने वाली पुस्तक बन गई।
इसके लिए मैं अपने आप को जिम्मेदार बिल्कुल नहीं मानती क्योंकि मुझ में इतनी शक्ति नहीं है कि मैं अपने मालिक से यह कह सकूं कि वह मेरा अध्ययन करे। यदि मुझमें इतनी शक्ति होती तो मैं अपने मालिक से हर दिन मेरा दिन करने को कहती जिससे मेरे मालिक का मेरे प्रति आकर्षण हमेशा बना रहे
आज मेरे कई पन्ने पूर्णता निकल चुके हैं, कुछ फट चुके हैं और मेरा स्वरूप भी पहले की तरह आकर्षक नहीं है। लेकिन आज भी मुझ में इतना ज्ञान संरक्षित है कि मैं किसी भी मनुष्य को ज्ञान देने का सामर्थ्य रखती हूं।
हो सकता है कि मेरा मालिक मुझे कुछ दिनों के बाद रद्दी के भाव कबाड़े में बेच दे। मगर उस वक्त भी मैं किसी ज्ञान के जिज्ञासु के पास जाना पसंद करूंगी जो उस कबाड़े में से मुझे उठा कर मेरा अध्यन कर ज्ञान प्राप्त करें।
पता नहीं कितने अच्छे दिन थे वो जब मैं भी नई नवेली थी और मेरा मालिक मुझे हमेशा अध्ययन करता रहता था। उस वक्त में अपने आप को सबसे ज्यादा गौरवान्वित महसूस करती थी और यह सोचती थी कि मेरी यह कद्र हमेशा रहेगी। पर शायद मैं उस वक्त गलत थी।