गूंगा हुआ बावला, बहरा हुआ कान। पाऊं थें पंगुल भया, सतगुरु माऱ्या बान॥ पाछै लागा जाइथा, लोकवेद के साथि। आगैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथ ॥
Answers
गूँगा हूवा बावला, बहरा हुआ कान।
पाऊँ थै पंगुल भया, सतगुर मार्या बाण॥
or
गुंगा हुआ बावला, बहरा हुआ कान।
पाऊं थे पंगुन्ल भय, सतगुर मार्या बाण।।
Goonga Hoova Baavala, Bahara Hua Kaan.
Paoon Thai Pangul Bhaya, Satagur Maarya Baan.
Or
Gunga Hua Bawala, Bahara Hua Kaan.
Paaun The Pangunl Bhaya, Satagur Maarya Baan.
कबीर दोहे के शब्दार्थ Kabir Ke Dohe Word Meaning
गूँगा हूवा बावला -गुंगा और पागल.
बहरा हुआ कान -कानों से सुनाई नहीं देना.
पाऊँ थै पंगुल भया -पावों से पंगु/विकलांग हो जाना.
सतगुर मार्या बाण -सतगुरु ने ज्ञान का बाण चलाया/ज्ञान प्रदत्त किया.
कबीर के दोहे का हिंदी मीनिंग : - कबीर साहेब की वाणी है की गुरु देव ने साधक पर ज्ञान का ऐसा बाण चलाया जिससे उसकी वाक क्षमता ही समाप्त हो गई, वह गुंगा और पागल हो गया और पावों से विकलांग हो गया. गुंगा हो जाने से भाव है की वह अब सांसारिक बातों में अपना ध्यान नहीं लगाता है।
बहरे से भाव है की वह विषय विकारों की बातों को नहीं सुनता है. विषय विकारों में दग्ध संसार की आवाजें उसे सुनाई नहीं देती है और विकलांग हो जाने से भाव है की वह विषय विकार और स्वार्थों की दौड़ में भाग नहीं लेता है. साधक अब भक्ति की एक ऐसी अवस्था में पहुँच चुका है जहाँ इस संसार के मायाजनित क्रिया कलाप उसके लिए कोई मायने नहीं रखते हैं. साधक को ना तो मोहक संगीत और नाहीं कोलाहल सुनाई देता है. शिष्य/साधक शब्द/वाणी के बाद संसार में रहकर भी संसार का नहीं है.
साधक को संसार की किसी बातों से कोई मोह नहीं रहा है. अब वह विरक्त हो गया है. “सतगुरु मार्या बाण” कुछ ऐसा “भीतरि भिध्या” कि शिष्य का चंचल मन तो पंगु बना दिया है और शिष्य अब “उनमनी” अवस्था में पहुच गया है। कबीर साहेब नी रहस्यवादी की उस स्थिति का वर्णन किया है, जिसमे साधक की विभिन्न इंद्रिया सांसारिक कार्यों के प्रति उदासीन हो जाती हैं ओर वे निश्तेज हो जाती है। ज्ञान की ज्योति सम्प्राप्त हो जाने पर, ब्रम्हा की अनुभूति परिपूरित हो जाने पर साधक की इंद्रिया लौकिक आनंद तथा सांसारिक सुखो के प्रति विमुख हो जाती हैं।
Kabir Bhajan | पिया मोरा मिलिया | Piya Mora Miliya | Gyanita Bhajan
पिया मोरा मिलिया सत्त गियांनीं।।
सब मैं व्यापक सब की जांनै एैसा अंतरजांमीं।
सहज सिंगार प्रेम का चोला सुरति निरति भरि आंनीं।।
सील संतोष प्रहिरी दोई कंगन होई रही मगन दिवांनीं।
कुमति जराई करौं मैं काजर पढ़पी प्रेम रस बांनीं।।
एैसा पिया हम कबहुं न देखा सूरति देखि लुभांनीं।
कहै कबीर मिला गुरू पूरा तन की तपनि बुझांनीं।।
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