Science, asked by lokesharora60441, 1 year ago

गिल्ली डंडा व खो-खो खेल का ऐतिहासिक विकास लिखो।

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गिल्ली डंडा पूरे भारत में काफी प्रसिद्ध खेल है। इसे सामान्यतः एक बेलनाकार लकड़ी से खेला जाता है जिसकी लंबाई बेसबॉल या क्रिकेट के बल्ले के बराबर होती है। इसी की तरह की छोटी बेलनाकार लकड़ी को गिल्ली कहते हैं जो किनारों से थोड़ी नुकीली या घिसी हुई होती है।

खेल का उद्देश्य डंडे से गिल्ली को मारना है। गिल्ली को ज़मीन पर रखकर डंडे से किनारों पर मारते हैं जिससे गिल्ली हवा में उछलती है। गिल्ली को हवा में ही ज़मीन पर गिरने से पहले फिर डंडे से मारते हैं। जो खिलाड़ी सबसे ज्यादा दूर तक गिल्ली को पहुँचाता है वह विजयी होता है।[1]

इस खेल के लिये कम से कम दो खिलाड़ियो की आवश्यकता होती है। खेल प्रारम्भ करने के लिये पहले। जमीन पर एक छोटा सा लम्बा गड्ढा करते है। फिर उस पर गिल्ली रख कर डन्डे से उछालते है। यदि सामने खड़ा खिलाड़ी गिल्ली को हवा मे ही पकड़ लेता है तो खिलाड़ी हार जाता है किन्तु यदि ऐसा नही होता तो सामने खड़ा खिलाड़ी गिल्ली को डन्डे पर मारता है जो कि जमीन के गड्ढे पर रखा होता है, यदि गिल्ली डंडे पर लग जाती है तो खिलाड़ी हार जाता है अन्यथा पहला खिलाड़ि फिर गिल्ली को दन्दे से उसके किनारे पर मारता है जिससे गिल्ली हवा मे उछलती है, इसे फिर दन्दे से मारते है और गिल्ली को दूर फेकने को प्रयास करते है। यदि गिल्ली को हवा मे लपक लिया जाये तो खिलाड़ी हार जाता है, अन्यथा दुसरा खिलाड़ी गिल्ली को वही से दन्दे पर मारता है, दन्दे पर लगने की स्थिति मे दूसरे की बारी आती है। यदि गिल्ली को मारते समय डंडा जमीन से छू जाता है तो खिलाड़ी को गिल्ली को एस प्रकार मारना होता है कि उसका डंडे वाला हाथ उसके एक पैर के नीचे रहे। इसे हुच्चको कहते है। गिल्ली को किनारे से मारने का प्रत्येक खिलाड़ी को तीन बार मौका मिलता है। इस खेल मे अधिकतम खिलाड़ियो कि सन्ख्या निर्धारित नही होती है।

अधिकांश भारतीय लोगों द्वारा खेला गया खो-खो का खेल भारत में सबसे लोकप्रिय पारंपरिक खेलों में से एक है। खो-खो की उत्पत्ति का पता लगाना मुश्किल है, लेकिन कई इतिहासकारों का मानना है कि यह 'पकड़म-पकड़ाई' का एक संशोधित रूप है। परंतु क्या आप जानते हैं कि खो खो शब्द संस्कृत के शब्द “स्यु (syu)” से लिया गया है, जिसका अर्थ ‘उठो और जाओ’ है। भारत में खो-खो का इतिहास काफी गहरा है, इसकी शुरुआत सबसे पहले महाराष्ट्र राज्य में हुई थी और खो-खो मराठी भाषी लोगों के समक्ष काफी लोकप्रिय रहा है। महाराष्ट्र में इसकी उत्पत्ति के साथ-साथ खो-खो को प्राचीन काल में रथ में खेला जाता था और इसे रथेरा के रूप में जाना जाता था।

सभी भारतीय खेलों की भांति ही खो-खो भी सरल, सस्ता और आनंदमय खेल है। हालांकि, इस खेल को खेलने के लिए शारीरिक दुरूस्ता, बल, गति और सहनशक्ति की जरूरत होती है। नियंत्रित गति से चकमा देना, छ्लना और निकल कर भागना इस खेल को काफी रोमांचकारी बनाता है। खो-खो का खेल टीम के सदस्यों के बीच आज्ञाकारिता, अनुशासन, खेल कौशल और निष्ठा जैसे गुणों को विकसित करता है। वहीं कई वर्षों तक तो यह खेल अनौपचारिक तरीके से खेला गया था। खो-खो को लोकप्रिय बनाने के लिए पुणे के डेक्कन जिमखाना क्लब ने खेल को औपचारिक रूप देने की कोशिश की थी। 1935 में नव स्थापित अखिल महाराष्ट्र शारीरिक शिक्षण मंडल द्वारा नियम का पहला संस्करण, आर्यपथ्य खो-खो और हू-तू-तू प्रकाशित किया गया था। वहीं खेल में कुछ संशोधन भी किए गए थे।

पहले खो-खो में कोई नियम नहीं थे, सबसे पहला नियम पुणे के डेक्कन जिमखाना के संस्थापक लोकमान्य तिलक द्वारा बनाया गया था। जिसमें मैदान में खेल को खेलने की सीमा को निश्चित किया गया था। वर्ष 1919 में खो-खो को 44 गज लंबी मध्य रेखा और 17 गज चौड़ाई में दीर्घवृत्तीय क्षेत्र में परिवर्तित किया गया। वहीं 1923-24 में इंटर स्कूल स्पोर्ट्स ऑर्गेनाइजेशन की नींव रखी गई थी और खो-खो को पेश किया गया था।

पिछ्ले कई वर्षों में खेल के नियमों में कई बदलाव आए हैं। 1914 में प्रारंभिक प्रणाली में प्रत्येक प्रतिदुंदी को बाहर निकलने के लिए 10 अंक मिलते थे तथा समय निर्धारित होता था। वहीं 1919 में 5 अंक कर दिए गए और खेल को आठ मिनट तक कर दिया गया। यदि पूरी टीम समय से पहले ही रन बना लेती है, तो पीछे भागने वाले को हर उस मिनट के लिए 5 अंक का बोनस आवंटित किया जाता है। अन्य बदलाव खेल के मैदान में किए गए थे जैसे इसे दीर्घ वृत्ताकार से आयताकार में बदल दिया गया था। वहीं दो खंबों के बीच की दूरी को 27 गज तक छोटा कर दिया गया था और प्रत्येक खंबो से बाहर 27 गज x 5 गज की दूरी पर 'डी' जोन को बनाया गया था।

Answered by r5134497
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गिल्ली डंडा व खो-खो खेल

स्पष्टीकरण:

गिल्ली-डंडा

  • गिल्ली-डंडा एक शौकिया खेल है जो मुख्य रूप से बांग्लादेश, भारत, नेपाल और पाकिस्तान के ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों में खेला जाता है और कंबोडिया और इटली के कुछ हिस्सों में भी खेला जाता है। खेल दो छड़ियों के साथ खेला जाता है: एक बड़ा एक डंडा कहा जाता है, जो एक छोटे से, गिल्ली को मारने के लिए उपयोग किया जाता है।
  • गिल्ली डंडा भारत का एक प्राचीन खेल है, संभवतः 2500 साल पहले इसकी उत्पत्ति हुई थी। इसे क्रिकेट, बेसबॉल और सॉफ्टबॉल जैसे पश्चिमी खेलों का मूल माना जाता है।
  • एक शौकिया युवा खेल के रूप में, गिल्ली-डंडा में कई क्षेत्रीय विविधताएं हैं। कुछ संस्करणों में, स्ट्राइकर अंक की संख्या इस बात पर निर्भर करती है कि गिल्ली हड़ताली बिंदु से कितनी दूर है। दूरी को डंडा की लंबाई, या कुछ मामलों में गिल्ली की लंबाई के संदर्भ में मापा जाता है। स्कोरिंग इस बात पर भी निर्भर करता है कि गिल्ली को पहली बार कितनी बार हवा में मारा गया था। यदि यह दो मध्य-हवाई हमलों के साथ एक निश्चित दूरी की यात्रा करता है, तो कुल अंक दोगुना हो जाते हैं।

खो खो

  • खो खो भारत में खेला जाने वाला एक पारंपरिक खेल है। इसकी उत्पत्ति प्राचीन है, जिसकी रणनीति और रणनीति महाकाव्य 'महाभारत' से ली गई है। युद्ध के 13 वें दिन, कौरव जनरल गुरु द्रोणाचार्य ने 'चक्रव्यूह’ एक विशेष सैन्य रक्षा घेरा बनाया, जो अंततः प्रसिद्ध योद्धा अभिमन्यु द्वारा प्रवेश किया गया था। वह अंततः 7 अन्य योद्धाओं के खिलाफ अकेले लड़ने के लिए मारा गया था, लेकिन उसने बदले में भारी हताहत किया। उनकी लड़ने की शैली  'रिंग प्ले' की अवधारणा को दर्शाती है - खो खो में एक रक्षात्मक रणनीति।
  • कई अन्य समानताएं देखी जाती हैं, लेकिन एक गहरे स्तर पर, खो खो कई अन्य वांछनीय लक्षण - खेल कौशल, टीम वर्क, वफादारी, प्रतिस्पर्धा और आत्म-सम्मान के साथ-साथ गति, चपलता, रणनीति और त्वरित सोच को बढ़ावा देता है। यह गेम अपने आप में एथलीट के लिए एक व्यक्तिगत विकास उपकरण है जो चुनौती लेता है।
  • खो खो को पहली बार 1936 के बर्लिन ओलंपिक में एकल टीम द्वारा एक विशेष विशेषता के रूप में प्रदर्शित किया गया था। एक अंतरराष्ट्रीय खेल के रूप में, इसने 1996 में कोलकाता में पहली एशियाई खो खो चैम्पियनशिप के माध्यम से अपनी पहली प्रविष्टि बनाई और 2000 में दूसरी चैंपियनशिप में मजबूत हुई।
  • हालाँकि यह गुंजाइश एशियाई बनी हुई है और ब्रिटिश टीम के गठन के साथ - खो खो फेडरेशन ऑफ इंडिया और खो ओलंपिक संघ और भारतीय ओलंपिक संघ द्वारा इंग्लैंड को बनाया गया है। जल्द ही हम इस खूबसूरत खेल को सही मायने में अंतर्राष्ट्रीय मंच पर ले जाएंगे - यह हमारी दृष्टि है।
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