गुप्तकाल में हुए सामाजिक संगठन कृषि शिल्पकला व्यापार में सुधार
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गुप्त काल
गुप्त साम्राज्य का क्षेत्र उत्तर, से दक्षिण पूर्वी तथा भारत तक फैला हुआ था
सामाजिक संगठन:_गुप्त साम्राज्य में भी उत्पादन का मुख्य साधन कृषि ही था। गुप्त सम्रटो न ने भी भूमि_अधिग्रहण का कार्य किया, किन्तु इस काल में साफ़ की गई भूमि पर राज्य का स्वामित्व एवं नियंत्रण काफी कम हो गया तथा भूमि अब लोगो के हाथ में आ गई थी। लोग आपनी भूमि का प्रबन्धन तथा कर वसूल करने का कार्य स्वम् कर सकते थे, किन्तु इसके लिए कानून बनाय गए थे। गुप्त सम्राटों के अपने धर्मं अवश्य थे, किन्तु राज्य धर्मं_निरपेक्ष थे। बौद्ध धर्मं, जैन धर्मं तथा परम्परागत हिन्दू संगठनो को अनुदान के माध्यम से सहायता व सरक्षण दिया था। ब्राह्मणों का महत्व इस समय कम हो गया। कृषि का महत्व बढ़ने तथा दस्तकारी की वस्तुओं का उत्पादन शुरू होने से शूद्रों की स्थिति बेहतर हो गई थी। इस काल में पिछले काल की तुलना में राजकीय नियंत्रण हटा देने से प्रभाव काफी अनुकूल रहे, कियोंकि इससे लोगो को कार्य में पहल करने की प्रेरणा मिली। इससे ब्राह्मणों का प्रभाव तो कम हुआ ही साथ ही कठोर वर्ण_व्यवस्था का प्रभाव भी कम हुआ।
तकनीकों और शिल्पकला में सुधार:-इस काल में कृषि की नई तकनीकों व नए किस्म के बीजों के कारण उत्पादन में वृद्धि हुई। शिल्पकला में सुधार के साथ_साथ विविधता भी आई।
शिल्पकला:-इस काल में धातु कार्य व बुवाई कला में काफी प्रगति हुई। लोहे व तांबे की मिश्र धातु बनाई जाती थी, जिसमें जंग न लगे और उससे असैनिक व सैनिक प्रयोग की वस्तुए बनाए जाती थी। भारतीय कपड़े विशेषकर बनारस एवं बंगाल के कपड़े अपने हल्के वज़न तथा सुंदर बनावट एवं तंतु विन्यास के लिये विख्यात हो गए थे। इनकी इसी विशेषता के कारण इनकी माँग अन्य देशो में भी थी। राज्य की हस्तक्षेप कम हो गया तथा इससे कारिगरण या शिल्पकारों की संस्थाएँ बन गई जो काफी शक्तिशाली व महत्वपुर्ण हो गई थीं कार्य करने के लिये व्यक्तियोँ के मध्य अनुबन्ध होते थे, यहाँ तक की राजकीय अधिकारियों के साथ भी। इस वर्ग के शिल्पकार लोगों से पूँजी उधार लेते थे तथा उन्हें ब्याज़ समेत लौटा देते थे।
कृषि:- काली मिर्च व मसालों की खेती निर्यात व धरेलू खपत दोनों के लिय की जाती थी। चावल, गेहूँ, जौं, तिल, दालें जैसी फसलें था सब्ज़ियों व पान आदि का उत्पादन किया जाता था, नाशपाती व आड़ू जैसे नय फलों का पैदावार भी पहली बार शुरू की गई थी और इन सबको सही प्रकार के उगाने के लिए नियम_पुस्तिकाएँ बनाई गई थीं।
व्यापार:- बाहरी व आंतरिक व्यापर बढ़ाने से वस्तुओं का सीधा उत्पादन करने वालों का महत्व भी बढ़ता गया। परिवहन, संचार तथा व्यापारिक मार्गों की बेहतर सुबिधाओं के परिणामस्वरूप व्यापार में काफी तेजी आ गई थी, जिससे मुद्रा प्रसार को भी बढ़ावा मिला। कारीगरों की भांति व्यापारियों की संस्थाएँ भी बन गए थी, जिन्हें "श्रेणी" कहा जाता था। गंगा व सिंधु नदियों के आस_पास ही मुख्य व्यापारिक मार्ग थे। वस्तुओं की खरीद बेच अभी भी शासन के नियंत्रण में थी। विदेशी व आंतरिक व्यापर दोनों फलफूल रहे थे जिसके लिए मानसून का ज्ञान महत्वपुर्ण भूमिका निभा रहा था। भारतियों ने अरबों, भूमध्य देशों, विशेषकर रोम, अफ्रीका, दक्षिण_पूर्वी एशियाई देशों जैसे जावा, सुमात्रा व श्रीलंका के साथ व्यापार किया। इस प्रकार उस समय भारतीय समाज वस्तुओं के उत्पादन तथा विनियम स्वदेशी बाज़ारों व विदेशी व्यापार के कारण उच्च पर था। इनके परिणामस्वरूप ही उत्पादन की नवीन तकनीकों के बेहतर प्रबन्ध हेतु नये प्रकार के गणित तथा अंकज्ञान व निर्माण संचार तथा जहाजरानी के नय तरीकों के की जरूरत महसूस हुई इन तकनीकों की माँग का मुख्य कारण था कठोर प्रशासनिक नियंत्रण का कम हो जाना। उस समय एक नया समाज स्थापित हुआ, जिसमें पुरानी जाती व्यवस्था कमजोर पड़ गई थी और उनके स्थान पर श्रम_विभाजन के आधार पर एक नई जाती व्यवस्था अस्तित्व में आई।
Write by... bhole ki prem deewani
Om namah shivaay