गुरु के रुठ जाने पर क्या होता है
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Answer:
गुरु और भगवान के रूठ जाने पर विपत्ति का आना अवश्य संभावी है। जीवन में हमेशा विपत्तियां आती है लेकिन जब तक भगवान और गुरु रहते है तो इन विपत्तियों का अहसास जीव को नहीं हो पाता क्योंकि उनकी कृपा उन पर होती है। लेकिन जब यही रूठ जाते हैं तो फिर बचाने वाला कोई नहीं होता।
Explanation:
किसी भी परिस्थिति में गुरु का अनादर नहीं करना चाहिए क्योंकि गुरु का अनादर करने के बाद आपके पास फिर और कोई ठिकाना नहीं रह जाता,जहां जाकर वह अपनी गलतियों का प्रायश्चित कर सके।
कबीरनगर फेस-2 में गुरुद्वारे के पास हरियाणा सेवा संघ द्वारा आयोजित भागवत कथा में अजामिल का प्रसंग आने पर आचार्य कृष्णकुमार शास्त्री के शिष्य आशुतोष महाराज ने यह बातें कही। उन्होंने आगे कथा सुनाते हुए कहा कि अजामिल पहले भगवान का भक्त था लेकिन बाद में वह वैश्या के फेर में आने के बाद भक्त से डाकू बन गया और अंत में संतों की कृपा से वह फिर से भगवान के नाम का जाप अपने पुत्र के नाम के माध्यम से ही करने लगा। जब अंतिम समय में कोई उसका साथ न दे सका तब भगवान स्वयं अजामिल को अपने धाम ले गए। भगवान के नाम का स्मरण चाहे भक्त करें या नास्तिक, यदि उसमें भगवान का भाव छिपा है तो उसका उद्धार निश्चित हो जाता है। इंद्र द्वारा सभा में गुरु को अनदेखा किए जाने के प्रसंग पर आशुतोष महाराज ने कहा कि गुरु का कभी अपमान या अनादर नहीं करना चाहिए। भगवान यदि रूठ जाएं तो गुरु की शरण में जाकर उन्हें मनाया जा सकता है लेकिन यदि गुरु ही रूठ जाएं तो फिर भगवान को कौन मनाएगा। गुरु और भगवान के रूठ जाने पर विपत्ति का आना अवश्य संभावी है। जीवन में हमेशा विपत्तियां आती है लेकिन जब तक भगवान और गुरु रहते है तो इन विपत्तियों का अहसास जीव को नहीं हो पाता क्योंकि उनकी कृपा उन पर होती है। लेकिन जब यही रूठ जाते हैं तो फिर बचाने वाला कोई नहीं होता।
यज्ञ में ब्राह्मण और यजमान का सात्विक होना जरूरी
आशुतोष महाराज ने यज्ञ का महत्व बताते हुए कहा कि सिर्फ यज्ञ करने से कुछ नहीं होता, यज्ञ किस भावना के साथ किया जा रहा है यह महत्वपूर्ण है। यजमान और ब्राम्हण दोनों का सात्विक होना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि यज्ञ संपन्न कराने के बाद उसके पुण्य का पूर्ण दायित्व ब्राम्हण का जाता है और जिस कार्य से यज्ञ कराया जा रहा है उसका दायित्व यजमान का होता है। बड़े-बड़े यज्ञ कराने की अपेक्षा घरों में छोटे यज्ञ कराने चाहिए, लेकिन नियम यही है कि ब्राम्हण और यजमान दोनों सात्विक और समर्पित हों। महाराजश्री ने कहा कि यदि किसी अज्ञानता से अथवा किसी कारणवश जीव से किसी की हत्या, अहिंसा हो जाए तो परोपकारियों को दान देने से उनके इस पाप को वे अपने ऊपर ले लेते है। शास्त्रों में चार परोपकारी जो बताए गए है वे हैं पृथ्वी, नदियां, वृक्ष और मातृशक्ति। ये ऐसे तत्व है जिनको यह वरदान भगवत कृपा से प्राप्त हुआ है कि पाप को धारण करने के बाद भी वे फिर से अपनी उसी अवस्था में आ जाते है और फिर से दूसरों के लिए हितकारी ही बने रहते हैं।