Political Science, asked by salmanhaider2552, 11 months ago

गाँधीजी मार्क्स के विचारों से किस सीमा तक सहमत थे?

Answers

Answered by gurjaranil144
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Explanation:

गांधीजी ने धर्म को भारत का प्राण कहा है। पर मार्क्सवाद धर्म को अफीम की गोली मानता है। गांधीजी कहते हैं कि भारत से धर्म निकल जाये तो फिर वह भारत ही नहीं रह जायेगा। पर मार्क्सवादी भारत से ही नहीं, पूरी दुनिया से धर्म को नष्ट करने पर आतुर हैं। ये अलग बात है कि करोड़ों लोगों की हत्या करने के बावजूद रूस या चीन में धर्म जिन्दा रह गया।

गांधीजी भारत को विश्व का प्राचीनतम राष्ट्र मानते थे। हिन्द स्वराज्य में वे लिखते हैं कि भारत अगर प्राचीन काल से एक राष्ट्र नहीं होता, तो हमारे पूर्वज रामेश्वर, पूरी, बद्रीनाथ और द्वारका रूपी चारधाम की यात्रा क्यों अनिवार्य करते। पर ये वामपंथी गांधीजी जैसे राष्ट्रनायक की बात को झूठा साबित करते हुए भारत को एक राष्ट्र नहीं मानते हैं, बल्कि अनेक राष्ट्रों का जमघट करार देते हैं। देश अपने गांधी की बात माने या विदेशी विचारकों के गुलाम वामपंथियों की बात माने ?

गांधीजी ने लोकतंत्र को भारत और दुनिया के लिए युगानुकूल शासन पद्धति माना है। उनके अनुसार लोकतंत्र में बुराई हो सकती है, पर उसका आवश्यक परिष्कार करते जा सकते हैं। मार्क्सवाद लोकतंत्र को पूंजीवाद से जोड़ देता है, और सभी बुराइयों को दूर करने के लिए सर्वहारा की तानाशाही की वकालत करता है। इस घातक विचार ने रूस और चीन जैसे देशों में करोड़ों को मौत के घाट उतार दिया या उन्हें साइबेरिया जैसे निर्जन स्थानों पर सड़ने छोड़ दिया। भारत में भी उस लोकतंत्र के हत्यारे मार्क्सवाद को लादना किसे स्वीकार होगा ?

भारत में जो हिंसक आंदोलन जारी हैं, वे अधिकांश मार्क्सवाद से प्रेरित हैं। देश का कैंसर बन चुका नक्सलवाद भी मार्क्सवाद की ही देन है। अब ये वामपंथी भारत विरोध में इतने निचले स्तर पर गिर गए हैं कि इन हिंसावादी वामपंथियों ने मुस्लिम आतंकवादियों से भी हाथ मिला लिया है। कुछ समय पूर्व कानपूर में हुई रेल दुर्घटना में वामपंथ से जुड़े लोग ही पाकिस्तान के हस्तक बने थे।

19वीं सदी में यूरोप में मजदूरों का भयानक शोषण हो रहा था। उस दुर्दशा से करुणासागर मार्क्स द्रवित हुए और उन्होंने उस विषय पर चिंतन करने के लिए ऋषि समान तपस्वी जीवन जीया। पर उन्होंने जो सर्वहारा की तानाशाही रूपी उपाय सुझाया, वह मानवता पर भीषण कलंक सिद्ध हुआ। रूस में लेनिन द्वारा मार्क्सवाद स्थापित हुआ पर बाद में सत्ता क्रूरकर्मा स्टालिन के हाथ में चली गयी। तानाशाही तरीके से रूस में चकाचौंध भी हुयी। उस चकाचौंध ने भारत के अनेक विचारकों को आकर्षित किया। उसी में लोकनायक जयप्रकाश नारायण और डा. राममनोहर लोहिया जैसे युवा नेता भी थे। पर शीघ्र ही उन्हें चकाचौंध के नीचे हुए नरसंहार ने झकझोरा, और वे वापस लोट आये। जेपी ने धर्म को जीवन का परमावश्यक हिस्सा मानने वाले गांधीजी के सर्वोदय को अपनाया तो डा. लोहिया ने आध्यात्मिक समाजवाद की बात प्रारम्भ की। जरुरी नहीं कि हम ठोकर खाकर ही सीखें, विवेकशील तो वही है जो दूसरों के अनुभवों से सीखे। मार्क्सवाद के असली चेहरे को समझने के लिए जेपी की पुस्तक “समाजवाद से सर्वोदय की ओर” पढ़ना पर्याप्त है।

भारत में गांधी, लोहिया और जेपी जैसे राष्ट्रीय नेताओं की लताड़ से वामपंथियों ने लोकतंत्र का लबादा ओढने का ढोंग किया। इस ढोंग के चलते 30 वर्षों तक इन वामपंथियों ने बंगाल पर राज किया। उनके राज का परिणाम है बंगाल की दुर्दशा। बंगाल कभी अग्रणी राज्य होता था, पर वामपंथियों के लंबे शासन के कारण अब बंगाल अन्य राज्यों से पिछड़ने में स्पर्धा कर रहा है।

भारत गांधी का देश है। जितना गांधीजी ने भारत को समझा, उतना अभी तक किसी ने नहीं समझा, और जितना गांधीजी ने भारत के भविष्य के लिए रामराज्य का सपना दिखाया, उतना और किसी ने नहीं। पर एक नराधम ने गांधीजी की हत्या कर दी, और मार्क्सवाद से प्रभावित नेहरूजी बेलगाम बादशाह हो गए। उन्होंने भारतविरोधी मार्क्सवादी साँपों को पाला पोसा। भारत के संसाधनों से ही ये वामपंथी भारत विरोधी षडयंत्रों में लगे हुए हैं। अब उनके असली रंग को जानने वाले सत्ता में हैं, और उन्हें खलनायक के रूप में बेनकाब करने में जुट गए हैं, इसलिए ये वामपंथी छटपटा रहें हैं। हम सभी राष्ट्रवादियों को इन भारत और भारतीयता विरोधी वामपंथियों को जड़मूल से नष्ट करने में पुरुषार्थ करना चाहिए। वैसे ही जैसे युधिष्ठिर ने कौरवों के बाहरी संकट में फंसने पर कहा था- वयं पंचाधिकं शतम्। अर्थात हम आपस में भले विरोधी हों पर बाहरी ताकतों के खिलाफ हम एकजुट हैं।

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