गांधी जी ने सेवा धर्म के बारे में क्या कहा था आर्यों का हिंदुस्तान आत्मन
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स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती के परिप्रेक्ष्य में यह याद करना उचित होगा कि राष्ट्र के पुनर्जागरण में उनके योगदान को लेकर महर्षि अरविंद ने क्या कहा था। अरविंद के शब्दों में-एक देश को सम्मोहित करने में ब्रिटिश शासन को रिकार्ड सफलता हासिल हुई। उसने हमें इच्छाओं की मृत्यु के साथ जिंदा रहने के लिए राजी कर लिया। सम्मोहन करने वाले को जिस तरह की दूषित कमजोरियों की जरूरत होती है उन्हें हमारे भीतर भरा गया। यह सब तक चलता रहा जब तक उस विशालकाय जादूगर को भी वशीभूत करने वाले विवेकानंद ने भारत की आंखों के सामने अपनी उंगली रखकर यह नहीं कहा-'जागो'। दुर्भाग्य से इतिहासकारों ने इस तथ्य की अनदेखी ही कर दी कि विवेकानंद ने भारतीय मस्तिष्क को पुनर्जाग्रत करने का जो काम किया और भारतीय आत्मा को जिस तरह नया जीवन दिया उससे ही महात्मा गांधी को देश की आजादी के लिए संपूर्ण जनमानस को उद्वेलित करने का आधार मिला। इसी प्रकार सामाजिक और धार्मिक सुधारों के मामले में भी गांधीजी को विवेकानंद ने जो पृष्ठभूमि उपलब्ध कराई उसकी अपेक्षित चर्चा नहीं हो सकी।
1901 में गांधीजी कांग्रेस सम्मेलन में भाग लेने के लिए कोलकाता का दौरा किया। वह इस दौरान विवेकानंद से मिलने गए, जो उस समय वस्तुत: मृत्यु शैया पर थे। दोनों के बीच क्या बातचीत हुई, इसका कोई रिकार्ड नहीं है, लेकिन यह आसानी से समझा जा सकता है कि दोनों के बीच अस्पृश्यता के मुद्दे पर अवश्य चर्चा हुई होगी। हाल में जोसेफ लेलील्ड की ग्रेट सोल शीर्षक से गांधीजी पर जो पुस्तक प्रकाशित हुई है उसमें लिखा गया है-कोलकाता में हुई मुलाकात के बाद गांधीजी ने अपने भाषणों में जब भी विवेकानंद का जिक्र किया तो अस्पृश्यता की बीमारी का उल्लेख अवश्य हुआ। विवेकानंद और गांधीजी, दोनों के पास शक्तिशाली और मौलिक मस्तिष्क था। दोनों को भारतीय संस्कृति की आत्मिक शक्ति पर अटूट विश्वास था। दोनों व्यावहारिक वेदांत पर भरोसा करते थे और उन्होंने हिंदुत्व को सेवा आधारित जीवन दर्शन के रूप में देखा, जिसमें उच्चतम स्तर की नैतिकता और आदर्श हों। दोनों ने यह सोचा कि आधुनिक व्यक्ति अपने चित्ता की वृत्तिायों पर बाहरी माध्यमों से जीत हासिल करने की आशा नहीं कर सकता। गांधीजी और विवेकानंद, दोनों का तर्क था कि महान सामाजिक और नैतिक व्यवस्था केवल महान व्यक्तित्वों के कंधों पर ही तैयार की जा सकती है। अगर आपके दिल में कोई शुद्धता, निष्पक्षता और न्याय नहीं होगा तो ये गुण आपके घर में नहीं आ सकते। अगर ये गुण आपके घर में नहीं होंगे तो वे आपके समाज में भी नहीं होंगे। फिर देश में इन गुणों की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
विवेकानंद और गांधीजी ने जीवन की नई दिशा दी। वे एक ऐसे भारत का निर्माण करना चाहते थे जो दुनिया को सहिष्णुता और विनम्रता का पाठ पढ़ा सके। विवेकानंद के लिए भारत में धर्म मूलभूत शक्ति थी। उन्होंने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति की तरह प्रत्येक राष्ट्र के पास जीवन की एक धुन होती है, जो उसके केंद्र में होती है। यदि कोई देश इसे अपनी राष्ट्रीय चेतना से बाहर करने की कोशिश करता है तो वह देश नष्ट हो जाता है। पूरे देश में अपने व्यापक भ्रमण और कन्याकुमारी में तीन दिनों के गहन ध्यान के बाद विवेकानंद ने 25 दिसंबर 1892 को जो सबसे पहले टिप्पणी की वह इस प्रकार थी-''धर्म राष्ट्र के शरीर का रक्त है। हमारी सभी बड़ी बीमारियों का कारण इस रक्त की अशुद्धता है। यह देश फिर से उभर सकता है यदि इस रक्त को शुद्ध कर दिया जाए।'' विवेकानंद ने शुद्ध हिंदुत्व को मानव सेवा से जोड़ते हुए कहा-जीव ही शिव है। उन्होंने अपने ही वर्ग से यह सवाल किया कि हमने क्या किया है? हम संन्यासियों यानी ईश्वर के तथाकथित संदेशवाहकों ने साधारण जनता के लिए आखिर किया ही क्या है?
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