Hindi, asked by shravaniupade18, 1 month ago

गांव में पिछले 2 वर्षों में आए अच्छे बदलाव और बुरे बदलाव​

Answers

Answered by satamil0505
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Answer:

पश्चिम बंगाल में पूर्वी मिदनापुर ज़िले का भगबानपुर गांव चीन के वुहान शहर से ठीक 2,799 किलोमीटर दूर है. वुहान वही जगह है जहां से कोरोना वायरस का संक्रमण फैलना शुरू हुआ.

वुहान से इतनी दूर होने के बावजूद भगबानपुर कोरोना वायरस से बुरी तरह प्रभावित है.

इस इलाक़े में रहने वाली पुतुल बेरा और रीता मेती जैसे सैकड़ों लोग कोरोना वायरस के कारण संकट में हैं.

ये लोग इंसानी बालों से विग बनाने का काम करते हैं. ये महीने में क़रीब 50 टन का उत्पादन करते थे, जिसे चीन निर्यात किया जाता था लेकिन पिछले दो सप्ताह से यह सिलसिला थम गया है.

इस कारोबार से घर चलाने वाली रीता मेती बताती हैं, "हमें नहीं पता था कि किसी वायरस का अटैक हो जाएगा. हमने हज़ारों रुपए के बाल ख़रीद लिए थे."

Explanation:

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Answered by hemantsuts012
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Answer:

Concept:

जहाँ आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से पिछडे़ हुए लोग रहते हो, उस क्षेत्र को गॉव कहा जाए।

Find:

गांव में पिछले 2 वर्षों में आए अच्छे बदलाव और बुरे बदलाव

Given:

गांव में पिछले 2 वर्षों में आए अच्छे बदलाव और बुरे बदलाव

Explain:

कोरोना महामारी ने हमारी जिंदगी बदल दी है। जिन रिश्तों को हमारे देश और समाज में खासा अहमियत मिला करती थी, वे सब तार-तार हो गए हैं। आधुनिक समाज में संयुक्त परिवार तो पहले ही बिखरने की तरफ थे, लेकिन कोरोना ने उनको बिल्कुल ही तोड़ दिया है। आलम यह है कि अच्छे परिवारों के लोग भी कोरोना-संक्रमित अपने परिजन का शव ले जाने को तैयार नहीं हैं। स्वास्थ्यकर्मी ही उनका दाह-संस्कार कर रहे हैं।

आश्चर्य तो यह है कि इस मुश्किल घड़ी में लोग ईश्वर को भी भूल रहे हैं। इतनी बड़ी महामारी में लोगों को प्रार्थना, हवन, पूजा या अरदास करते हुए शायद ही देखा गया है। संभव है, यह भ्रम इसलिए पैदा हो गया है कि लोग अब इकट्ठा होकर पूजा नहीं कर रहे हैं। मगर रोजमर्रा क की सामान्य बातचीत में भी ईश्वर को लोग बमुश्किल याद कर रहे हैं। शायद यह मान लिया गया है कि कोरोना महामारी का संकट स्वयं "भगवान भी टाल नहीं सकते। मंदिरों में जो लोग शिवलिंग की कोली भरकर सब कुछ पा जाना चाहते थे और नंदी बाबा के कान में अपनी सारी इच्छाएं, मनोकामनाएं सुना डालते थे, अब वही लोग इन मूर्तियों को छूने से बच रहे हैं।

इस संक्रमण काल में रंग-बिरंगे मास्क भी चलन में आ गए हैं। जो मास्क पहले चिकित्सा कारणों से हम पहना करते थे, उनमें तमाम तरह के फैशन आ गए हैं। हालांकि इसे लेकर लोगों में आज भी दुविधा बनी हुई है। कुछ मास्क तो सिर्फ डॉक्टरों के लिए अनिवार्य हैं, पर उसे आम लोग पहने हुए दिख जाते हैं। अब तो बाजार में हैलमेट की तरह एक शील्ड भी आ गई है, जिसमें हल्की से लेकर अच्छी क्वालिटी का प्लास्टिक लगा है। ऐसे में, वह दिन दूर नहीं, जब चेहरे से ज्यादा सुंदर मास्क नजर आएंगे। कोरोना ने हमारी सोच पर भी वार किया है। कई बार आदमी निश्चिंत होकर घूम रहा होता है, पर जैसे ही कोई सामने आता दिखता है, तो मास्क ऐसे लगाता है, मानों पुलिस चालान काटने आ गई हो। इतना ही नहीं, यदि सामने वाले इंसान सामान्य रूप से भी खांसता है या किसी के गले में तकलीफ दिखाई देती है, तो सीधे ध्यान इसी बात पर जाता है कि 'इसे कोरोना तो नहीं?' समझ में ही नहीं आ रहा कि जाएं, तो जाएं कहां और करें, तो करें क्या?

कोरोना में लोगों की श्रेणियां भी अलग-अलग हो गई हैं। एक डरे सहमे वे लोग हैं, जिन्होंने खुद को पूरी तरह से घरों में बंद कर लिया है। उनका मानना है कि बाहर निकलते ही उन्हें कोरोना हो जाएगा। मजबूरी में जो घरेलू कामगार उनके घरों में रहते हैं, उनसे भी उन्हें डर लगता है। दूसरी श्रेणी में वे लोग हैं, जो घर पर तो हैं, पर उनके घरेलू सहायकों का हर रोज बाहर आना-जाना है। ये वे लोग हैं, जिनको स्वयं काम करने की आदत नहीं रही है, पर जोखिम उठाने को वे तैयार हैं। तीसरी श्रेणी में वे लोग हैं, जिनका मानना है कि हरसंभव सावधानी बरती जाए, दो गज की दूरी का पालन किया जाए, मास्क लगाया जाए और बार-बार हाथ धोया जाए। ये वे लोग हैं, जो घर में बैठे-बैठे ऊब चुके हैं और इन्होंने मान लिया है कि जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां?

#SPJ2

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