galta loha hindi class 11 summary
Answers
'गलता लोहा' शेखर जोशी की कहानी-कला का एक प्रतिनिधि नमूना है| समाज के जातिगत विभाजन पर कई कारणों से टिप्पणी करने वाली यह कहानी इस बात का उदाहरण है कि शेखर जोशी के लेखन में अर्थ की गहराई का दिखावा और बड़बोलापन जितना ही कम है, वास्तविक अर्थ-गंभीर्य उतना ही अधिक| लेखक की किसी मुखर टिप्पणी के बगैर ही पूरे पाठ से गुजरते हुए हम यह देख पाते हैं कि एक मेघावी, किंतु निर्धन ब्राह्मण युवक मोहन किन परिस्थितियों के चलते उस मनोदशा तक पहुँचता है, जहाँ उसके लिए जातीय अभिमान बेमानी हो जाता है| मोहन का व्यक्तित्व जातिगत आधार पर निर्मित झूठे भाईचारे की जगह मेहनतकशों के सच्चे भाईचारे की प्रस्तवना करता प्रतीत होता है, मानों लोहा गलकर एक नया आकार ले रहा हो|
कहानी के शुरुआत में मोहन अपने खेतों के किनारे उग आई काँटेदार झाड़ियों को साफ करने के उद्देश्य से निकलता है| उसके पिता पंडित वंशीधर पुरोहिताई का काम कर परिवार का पेट भरते थे| लेकिन अब वो इतने वृद्ध हो चुके थे कि उनके बूते का कोई काम नहीं था| मोहन ने अपने पिता का भार हल्का करने के लिए खेती का काम सँभाल लिया| रास्ते में वह अपने हँसुवे की धार तेज कराने शिल्पकार टोले की तरफ मुड़ गया| वहीँ वह अपने बचपन के मित्र धनराम से उसके आफर में मिला| दोनों ने एक साथ पढ़ाई की थी| जहाँ मोहन पढ़ने में तेज था वहीँ धनराम थोड़ा मंदबुद्धि था| मास्टर त्रिलोक सिंह मोहन को बहुत पसंद करते थे क्योंकि वह एक मेघावी छात्र था| इसके विपरीत धनराम को पाठ याद न कर पाने के कारण हमेशा मार पड़ती थी| जाती का लोहार होने के कारण उसे मास्टर के व्यंग्यों का सामना करना पड़ता था| इन सब के बावजूद धनराम ने मोहन को कभी अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझा| अपने पिता से उसने लोहारगिरी का काम सीखा था और उनके गुजरने के बाद यही व्यवसाय अपना लिया|
चूँकि मोहन पढ़ने में तेज था, इसलिए उसके पिता ने उसकी आगे की पढ़ाई के लिए शहर भेज दिया| वहाँ उसके साथ नौकरों जैसा व्यवहार किया जाता था| उसकी पढ़ाई बीच में ही रूक गई| काम की तलाश में उसने कई कार्यालयों तथा फैक्टरियों के चक्कर लगाए| लेकिन उसे सफलता नहीं मिली| उसके पिता पंडित वंशीधर को बहुत आशा थी कि शहर से वह बड़ा आदमी बनकर लौटेगा| लेकिन मोहन की किस्मत को कुछ और ही मंजूर था| गाँव वापस आने के बाद उसने खेती का काम सँभाल लिया| वहीं वो अपने मित्र धनराम के आफर में जब उसे लोहा मोड़ते हुए गौर देखा तो उसकी आँखों में एक चमक-सी थी| धनराम के ऐसा न कर पाने पर वह बड़ी ही फुर्ती और आत्मविश्वास के साथ लोहे को मोड़ने में सफल हो गया| इस प्रकार कहानी के अंत में मोहन जातिगत पारंपरिक व्यवसाय के सोच से मुक्त होकर अपने कारीगरी और कार्य-कौशल को सबके समक्ष प्रस्तुत करता है|
कथाकार-परिचय
शेखर जोशी
जन्म- इनका जन्म सन् 1932, अल्मोड़ा (उत्तरांचल) में हुआ|
प्रमुख रचनाएँ- इनकी प्रमुख रचनाएँ कोसी का घटवार, साथ के लोग, दाज्यू, हलवाहा, नौरंगी बीमार है (कहानी-संग्रह); एक पेड़ की याद (शब्दचित्र-संग्रह) हैं|
सम्मान- इन्हें ‘पहल सम्मान’ प्रदान किया गया है|
पिछली सदी का छठवाँ दशक हिंदी कहानी के लिए युगांतकारी समय था| एक साथ कई युवा कहानीकारों ने अब तक चली आती कहानियों के रंग-ढंग से अलग तरह की कहानियाँ लिखनी शुरू कीं और देखते-देखते कहानी की विधा-साहित्य-जगत के केंद्र में आ खड़ी हुई| उस पूरे उठान को नाम दिया गया ‘नई कहानी आंदोलन’| इस आंदोलन के बीच उभरी हुई प्रतिभाओं में शेखर जोशी का स्थान अन्यतम है| उनकी कहानियाँ नई कहानी आंदोलन के प्रगतिशील पक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं| समाज का मेहनतकश और सुविधाहीन तबका उनकी कहानियों में जगह पाता है| निहायत साज एवं आडंबरहीन भाषा-शैली में वे सामाजिक यथार्थ के बारीक नुक्तों को पकड़ते और प्रस्तुत करते हैं| उनके रचना-संसार से गुज़रते हुए समकालीन जनजीवन की बहुविध विडंबनाओं को महसूस किया जा सकता है| ऐसा करने में उनकी प्रगतिशील जीवनदृष्टि और यथार्थ बोध का बडा योगदान रहा है| शेखर जी की कहानियाँ विभिन्न भारतीय भाषाओँ के अतिरिक्त अंग्रेजी, पोलिश और रूसी में भी अनूदित हो चुकी हैं|
Explanation: 'गलता लोहा' शेखर जोशी की कहानी समाज के जातिगत विभाजन पर होने वाली टिप्पणी पर आधारित कहानी है ।
कहानी के शुरूआत में मोहन अपने खेतों के किनारे उगी झाड़ियों को साफ करने निकलता है । रास्ते में वह अपने मित्र धनराम से मिला । धनराम जाति से लोहार था इसलिए मास्टर के ताने सुनता था । मोहन पढ़ने में तेज़ था इसलिए उसके पिता ने उसे शहर पढ़ने भेजा । वहां उसके साथ नौकरों जैसा व्यवहार होता था । उसकी पढ़ाई बीच में ही रूक गई । पिता की उम्मीदों को पूरा करने वह नौकरी ढूंढने लगा । अंत में असफल होकर वापिस गांव लौट आया और खेती का काम संभाला । वहीं जब उसने अपने मित्र धनराम को लोहा मोड़ने में असफल देखा तो दौड़ते हुए गया और लोहे को मोड़ने में सफल हो गया । इस प्रकार कहानी के अंत में मोहन जातिगत परंपराओं से मुक्त हो गया और अपनी कारीगरी को सबके सामने प्रस्तुत किया ।