Gandhiji ke sapno ka Bharat essay on Hindi
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भारत की हर चीज मुझे आकर्षित करती है। सर्वोच्च आकांक्षायें रखने वाले किसी व्यक्ति को अपने विकास के लिए जो कुछ चाहिये, वह सब उसे भारत में मिल सकता है।
भारत अपने मूल स्वरूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं।
भारत दुनिया के उन इने-गिने देशों में से है, जिन्होंने अपनी अधिकांश पुरानी संस्थाओं को, कायम रखा है। साथ ही वह अभी तक अन्ध-विश्वास और भूल-भ्रान्तियों की इस काई को दूर करने की और इस तरह अपना शुद्ध रूप प्रकट करने की अपनी सहज क्षमता भी प्रकट करता है। उसके लाखों करोड़ों निवासियों के सामने जो आर्थिक कठिनाइयाँ खड़ी हैं, उन्हें सुलझा सकने की उनकी योग्यता में मेरा विश्वास इतना उज्जवल कभी नहीं रहा जितना आज है।
मेरा विश्वास है कि भारत का ध्येय दूसरे देशों के ध्येय से कुछ अलग है। भारत में ऐसी योग्यता है कि वह धर्म के क्षेत्र में दुनिया में सबसे बड़ा हो सकता है। भारत ने आत्मशुद्धि के लिए स्वेच्छापूर्वक जैसा प्रयत्न किया है, उसका दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। भारत को फौलाद के हथियारों की उतनी आवश्यकता नहीं है; वह हथियारों से लड़ा है और आज भी वह उन्हीं हथियारों से लड़ सकता है। दूसरे देश पशुबल के पुजारी रहे हैं। यूरोप में अभी जो भयंकर युद्ध रहा है, वह इस सत्य का एक प्रभावशाली उदाहरण है। भारत अपने आत्मबल से सबको जीत सकता है। इतिहास इस सच्चाई को चाहे जितने प्रमाण दे सकता है कि पशुबल आत्मबल की तुलना में कुछ नहीं है। कवियों ने इस बल की विजय के गीत गाये हैं और ऋषिओं ने इस विषय में अपने अनुभवों का वर्णन करके उसकी पुष्टि की है।
यदि भारत तलवार की नीति अपनाये, तो वह क्षणिक सी विजय पा सकता है। लेकिन तब भारत मेरे गर्व का विषय नहीं रहेगा। मैं भारत की भक्ति करता हूँ, क्योंकि मेरे पास जो कुछ भी है वह सब उसी का दिया हुआ है। मेरा पूरा विश्वास है कि उसके पास सारी दुनिया के लिए एक सन्देश है। उसे यूरोप का अन्धानुकरण नहीं करना है। भारत के द्वारा तलवार का स्वीकार मेरी कसौटी की घड़ी होगी। मैं आशा करता हूँ कि उस कसौटी पर मैं खरा उतरूँगा। मेरा धर्म भौगोलिक सीमाओं से मर्यादित नहीं है। यदि उसमें मेरा जीवंत विश्वास है तो वह मेरे भारत-प्रेम का भी अतिक्रमण कर जायेगा। मेरा जीवन अहिंसा-धर्म के पालन द्वारा भारत की सेवा के लिए समर्पित है।
यदि भारत ने हिंसा को अपना धर्म स्वीकार कर लिया और यदि उस समय मैं जीवित रहा, तो मैं भारत में नहीं रहना चाहूँगा। तब वह मेरे मन में गर्व की भावना उत्पन्न नहीं करेगा। मेरा देशप्रेम मेरे धर्म द्वारा नियंत्रण है। मैं भारत से उसी तरह बंधा हुआ हूँ, जिस तरह कोई बालक अपनी माँ की छाती से चिपटा रहता है; क्योंकि मैं महसूस करता हूँ कि वह मुझे मेरा आवश्यक आध्यात्मिक पोषण देता है। उसके वातावरण से मुझे अपनी उच्चतम आकांक्षाओं की पुकार का उत्तर मिलता है। यदि किसी कारण मेरा विश्वास हिल जाय या चला जाय, तो मेरी दशा उस अनाथ के जैसी होगी जिसे अपना पालक पाने की आशा ही न रही हो।
मैं भारत को स्वतंत्र और बलवान बना हुआ देखना चाहता हूँ, क्योंकि मैं चाहता हूं कि वह दुनिया के भले के लिए स्वेच्छापूर्वक अपनी पवित्र आहुति दे सके। भारत की स्वतंत्रता से शांति और युद्ध के बारे में दुनिया की दृष्टि में जड़मूल से क्रांति हो जायेगी। उसकी मौजूदा लाचारी और कमजोरी का सारी दुनिया पर बुरा असर पड़ता है।
मैं यह मानने जितना नम्र तो हूँ ही कि पश्चिम के पास बहुत कुछ ऐसा है, जिसे हम उससे ले सकते हैं, पचा सकते हैं और लाभान्वित हो सकते हैं। ज्ञान किसी एक देश या जाति के एकाधिकार की वस्तु नहीं है। पश्चात्य सभ्यता का मेरा विरोध असल में उस विचारहीन और विवेकाहीन नकल का विरोध है, जो यह मानकर की जाती है कि एशिया-निवासी तो पश्चिम से आने वाली हरेक चीज की नकल करने जितनी ही योग्याता रखते हैं।....मैं दृढ़तापूर्वक विश्वास करता हूँ कि यदि भारत ने दुःख और तपस्या की आग में गुजरने जितना धीरज दिखाया और अपनी सभ्यता पर- जो अपूर्ण होते हुए भी अभी तक काल के प्रभाव को झेल सकी है-किसी भी दिशा से कोई अनुचित आक्रमण न होने दिया, तो वह दुनिया की शांति और ठोस प्रगति में स्थायी योगदान कर सकती है।
भारत का भविष्य पश्चिम के उस रक्त-रंजित मार्ग पर नहीं है जिस पर चलते-चलते पश्चिम अब खुद थक गया है; उसका भविष्य तो सरल धार्मिक जीवन द्वारा प्राप्त शांति के अहिंसक रास्ते पर चलने में ही है। भारत के सामने इस समय अपनी आत्मा को खोने का खतरा उपस्थित है। और यह संभव नहीं है कि अपनी आत्मा को खोकर भी वह जीवित रह सके। इसलिए आलसी की तरह उसे लाचारी प्रकट करते हुए ऐसा नहीं कहना चाहिये कि ‘‘पश्चिम की इस बाढ़ से मैं बच नहीं सकता।’’ अपनी और दुनिया की भलाई के लिए उस बाढ़ को रोकने योग्य शक्तिशाली तो उसे बनना ही होगा।
गांधी जी के सपनों का भारत
"आजादी एक जन्म के समान है ,जब तक हम पूर्ण स्वतन्त्र नहीं हैं तब तक हम दास हैं" :महात्मा गांधी
आजादी के छह दशक बाद भी अक्सर चर्चा में सुनाने को मिल जाता है कि सामजिक ,आर्थिक और प्रशासनिक तौर पर भारत की स्थिति में कोई ख़ास सुधार नहीं हुआ है I हमें पराधीनता से तो मुक्ति मिल गयी है लेकिन खुद को सामाजिक और राजनैतिक जकदन से मुक्त नहीं कर पाए हैं Iऐसे में उस महान विचारक का स्मरण होता है जिसने समृद्धि और उज्जवल भारत का सपना देखा था I
ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत राष्ट्रियता आन्दोलन के नेता तथा बीसवीं सदी के सबसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक "हिन्द स्वराज में पाश्चचात्य आधुनिक का विरोध कर हूमें यथार्थ को पहचानने का रास्ता दिखाया .ग्रामीण विकास को केंद्र में रखकर उन्होंने वैकल्पिक टेक्नोलॉजी के साथ -साथ स्वदेशी और सर्वोदय के महत्व को बताया I उनके इस आदर्श के प्रतिरूप का अनुसरण करके नैतिक ,आर्थिक आध्यत्मिक और शक्तिशाली भारत का निर्माण सार्थक बनाया जा सकता है I
आजादी से महात्मा गांधी का अर्थ केवल अंग्रेजी शासन से मुक्ति नहीं था बल्कि वह गरीबी ,निरक्षरता ,और अस्पर्श्यता जैसी बुराइयों और कुरीतियों से मुक्ति का सपना देखते थे I वह चाहते थे कि देश के सारे नागरिक सामान रूप से स्वाधीनता और समृद्धि के सुख भोगें I वह केवल राजनितिक स्वतंत्रता ही नहीं चाहते थे I अपितु जनता की आथिक क्षेत्र में विकेंद्रीकरण को महत्व दिया I अनके विचारों में लघु एवं कुटीर उद्योग से ही देश की सही उन्नत्ति हो सकती है I
महात्मा गांधी के बहुत से क्रांतिकारी विचार जिन्हें उस समय नकारा जाता था , बल्कि अपनाये भी जा रहे हैं Iआज के पीढ़ी के सामने यह स्पष्ट हो रहा है कि गांधी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं ,जितने उस समय थे I वर्तमान राजनितिक तंत्र के लिए गांधीगिरी आज के समय का मंत्र बन गया है I यह सिद्ध करता है कि उनके विचार इक्कीसवीं सदी के लिए भी सार्थक और उपयोगी है I