गपुर क्षेत्र में अंग्रेजों के विरोध में हुए आंदोलन में शहीद विरसा मुण्डा' की भूमिका को लिखिए।
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गपुर क्षेत्र में अंग्रेजों के विरोध में हुए आंदोलन में शहीद विरसा मुण्डा' की भूमिका---
‘‘मैं केवल देह नहीं
मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ
पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता
मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता
उलगुलान!
उलगुलान!!
उलगुलान!!!’’
‘बिरसा मुंडा (Birsa Munda) की याद में’ शीर्षक से यह कविता आदिवासी साहित्यकार हरीराम मीणा ने लिखी हैं। ‘उलगुलान’ यानी आदिवासियों का जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी का संघर्ष।
बिरसा मुंडा भारत के एक आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी और लोक नायक थे। अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में उनकी ख्याति जग जाहिर थी। सिर्फ 25 साल के जीवन में उन्होंने इतने मुकाम हासिल किये कि हमारा इतिहास सदैव उनका ऋणी रहेगा।
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को वर्तमान झारखंड राज्य के रांची जिले में उलिहातु गाँव में हुआ था
उनकी माता का नाम करमी हातू और पिता का नाम सुगना मुंडा था। उस समय भारत में अंग्रेजी शासन था। आदिवासियों को अपने इलाकों में किसी भी प्रकार का दखल मंजूर नहीं था। यही कारण रहा है कि आदिवासी इलाके हमेशा स्वतंत्र रहे हैं। अंग्रेज़ भी शुरू में वहां जा नहीं पाए थे, लेकिन तमाम षड्यंत्रों के बाद वे आख़िर घुसपैठ करने में कामयाब हो गये।
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ पहली जंग!
बिरसा (Birsa Munda) पढ़ाई में बहुत होशियार थे इसलिए लोगों ने उनके पिता से उनका दाखिला जर्मन स्कूल में कराने को कहा। पर इसाई स्कूल में प्रवेश लेने के लिए इसाई धर्म अपनाना जरुरी हुआ करता था तो बिरसा का नाम परिवर्तन कर बिरसा डेविड रख दिया गया।
कुछ समय तक पढ़ाई करने के बाद उन्होंने जर्मन मिशन स्कूल छोड़ दिया | क्योंकि बिरसा के मन में बचपन से ही साहूकारों के साथ-साथ ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों के खिलाफ विद्रोह की भावना पनप रही थी।
इसके बाद बिरसा ने जबरन धर्म परिवर्तन के खिलाफ़ लोगों को जागृत किया तथा आदिवासियों की परम्पराओं को जीवित रखने के कई प्रयास किया।
आदिवासियों के ‘धरती पिता’
1894 में बारिश न होने से छोटा नागपुर में भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे समर्पण से अपने लोगों की सेवा की। उन्होंने लोगों को अन्धविश्वास से बाहर निकल बिमारियों का इलाज करने के प्रति जागरूक किया। सभी आदिवासियों के लिए वे ‘धरती आबा’ यानि ‘धरती पिता’ हो गये।
अंग्रेजों ने ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट 1882’ पारित कर आदिवासियों को जंगल के अधिकार से वंचित कर दिया। अंग्रेजों ने ज़मींदारी व्यवस्था लागू कर आदिवासियों के वो गाँव, जहां वे सामूहिक खेती करते थे, ज़मींदारों और दलालों में बांटकर राजस्व की नयी व्यवस्था लागू कर दी। और फिर शुरू हुआ अंग्रेजों, जमींदार व महाजनों द्वारा भोले-भाले आदिवासियों का शोषण।
हमारा देश, हमारा राज’
1895 में बिरसा (Birsa Munda) ने अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन की लड़ाई छेड़ी। यह सिर्फ कोई बग़ावत नहीं थी। बल्कि यह तो आदिवासी स्वाभिमान, स्वतन्त्रता और संस्कृति को बचाने का संग्राम था।
बिरसा ने ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ यानि ‘हमारा देश, हमारा राज’ का नारा दिया। देखते-ही-देखते सभी आदिवासी, जंगल पर दावेदारी के लिए इकट्ठे हो गये। अंग्रेजी सरकार के पांव उखड़ने लगे। और भ्रष्ट जमींदार व पूंजीवादी बिरसा के नाम से भी कांपते थे।
अंग्रेजी सरकार ने बिरसा के उलगुलान को दबाने की हर संभव कोशिश की, लेकिन आदिवासियों के गुरिल्ला युद्ध के आगे उन्हें असफलता ही मिली। 1897 से 1900 के बीच आदिवासियों और अंग्रेजों के बीच कई लड़ाईयां हुईं। पर हर बार अंग्रेजी सरकार ने मुंह की खाई।
अंतिम यात्रा
जिस बिरसा (Birsa Munda) को अंग्रेजों की तोप और बंदूकों की ताकत नहीं पकड़ पायी, उसके बंदी बनने का कारण अपने ही लोगों का धोखा बनी। जब अंग्रेजी सरकार ने बिरसा को पकड़वाने के लिए 500 रूपये की धनराशी के इनाम की घोषणा की तो किसी अपने ही व्यक्ति ने बिरसा के ठिकाने का पता अंग्रेजों तक पहुंचाया।
जनवरी 1900 में उलिहातू के नजदीक डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे, तभी अंग्रेज सिपाहियों ने चारो तरफ से घेर लिया। अंग्रेजों और आदिवासियों के बीच लड़ाई हुई। औरतें और बच्चों समेत बहुत से लोग मारे गये। अन्त में बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये।
9 जून 1900 को बिरसा ने रांची के कारागार में आखिरी सांस ली।