गठबंधन सरकार के हानि बताओ
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- कमजोर सरकारें तथा सथायित्व को खतरा : भारत में गठबंधन सरकार (coalition government) के अस्तित्व को लगातार सरकारों के परिवर्तन से एक नकारात्मक स्थिति की तरह लिया जाने लगा. अटलबिहारी वाजपेयी की 1996 में 13 दिन चली सरकार, उसके ठीक बाद 1996 जून से अप्रैल 1997 के बाद अल्पावधि तक चली देवगौड़ा की सरकार, फिर गुजराल की सरकार का आना और अल्पावधि में चले जाना और पुनः NDA की 13 महीने की सरकार ने गठबंधन की राजनीति की सबसे बड़ी दुर्बलता को दर्शाया. इस प्रकार की समीकरणों में “स्थायी अस्तित्व के संकट” की झलक दिखी.
- नीतियों के बदलने पर दबाव की लगातार बाध्यता : भारत में गठबंधन सरकार के समक्ष हमेशा से यह चुनौती रही कि किसी भी विषय पर एक आम सहमति कैसी बनाई जाए? कई विदेशी संधियाँ इस तरह की बाध्यता से अक्सर प्रभावित होते रहे. उदाहरण के तौर पर NDA के समय भारत-अमेरिका नागरिक परमाणु समझौता (Civil Nuclear Deal) “हाइड एक्ट (Hyde Act)” को लेकर तमाम चर्चाएँ कई स्तरों पर लोकसभा और राज्य सभा में झूलती रहीं. इस प्रकार की विकट परिस्थितियों ने न सिर्फ गठबंधन सरकार की मजबूरियों को स्पष्ट रूप से दिखाया बल्कि इससे भारतीय राजनीति की वर्तमान स्थिति पर कई प्रकार के विवादों, बहस और इनकी तार्किकता पर प्रश्नचिह्न लगाया.
- अलग-अलग दलों में सैद्धांतिक आदर्शों में मतभेद : गठबंधन सरकार के अस्तित्व को खतरा अक्सर इस सम्बन्ध में देखा जाता है कि कई दलों से मिलकर बनी सरकार को कई सिद्धांतों के मध्य एक समन्वय बनाना पड़ता है और असंतुलन की स्थिति से बचना पड़ता है. उदाहरण के लिए मार्क्स से सम्बंधित दलों की विचारधारा के कारण कई बार औद्योगिक निर्णयों को बदलना या पूर्णतः समाप्त करना पड़ा है. इस प्रकार के निर्णय न केवल घरलू मुद्दों के परिवर्तन पर लागू किये जाते हैं बल्कि कई स्थितियों में बाहरी देश और संघ जैसे अमेरिका, यूरोपियन यूनियन (पूँजीवाद के प्रतिनिधि) से सम्बंधित नीतियों पर भी लिए जाते हैं. अतः आदर्शों पर मतभेद गठबंधन राजनीति की महत्त्वपूर्ण चुनौती है.
- प्रधानमन्त्री के विशेषाधिकार का हनन : मंत्रिमंडल के लिए सहयोगियों का चयन ह्म्सेशा प्रधानमन्त्री का विशेषाधिकार माना जाता है. परन्तु गठबंधन सरकार (coalition government) में प्रधानमन्त्री का यह विशेषाधिकार बुरी तरह प्रभावित होता है क्योंकि क्षेत्रीय दलों के नेता यह तय करते हैं कि मंत्रिमंडल में उनके दल का नेतृत्व कौन-कौन करेंगे और यह भी कि उन्हें कौन-कौन विभाग दिए जायेंगे. कई नेता तो पहले से ही यह मंशा पाले रखते हैं कि उन्हें कौन-सा पद लेना है, चाहे कैसे भी. गठबंधन सरकार की मजबूरी के कारण प्रधानमन्त्री को उनकी बात माननी पड़ती है.
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