Gender discrimination and its scientific aspects in hindi
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★तेरे माथे पे ये आँचल तो बहुत ही खूब है !
लेकिन तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था !!
☺कहने को तो महिलाएं अपने माथे के आँचल को परचम बनाने निकल पड़ी हैं, कागजों पर महिला सशक्तीकरण की दिशा में बहुत प्रगति दिखाई जाती है पर वास्तविक स्थिति ठीक इसके विपरीत सा ही प्रतीत होता है. आंकड़े और कहानियों में तो महिलाएं किसी गाँव की मुखिया हैं, शहरों में वार्ड पार्षद हैं, बोर्ड की परीक्षाओं में टॉपर हैं, अपने खुद के व्यवसाय की मालकिन हैं इत्यादि. इसमें कोई दो मत नहीं की महिलाओं की स्थिति में सुधार हो रहा है, पर यह गति बहुत ही धीमी है. शिक्षा, नौकरी, व्यापार से लेकर, स्वास्थ्य, खेल, राजनीति हर जगह महिलाएं सिर्फ नाम मात्र के लिए ही दिखती हैं, जो खुद बखुद उनकी सफलता और बेहतरी की कहानी बयां करता है. इस आलेख के माध्यम से महिलाओं की स्थिति का विश्लेषण करने की कोशिश की गयी है एवं किस प्रकार आदर्श समाज के निर्माण में लैंगिक समानता निर्णायक भूमिका निभाता है, को भी बताने का प्रयास किया गया है.
सामाजिक परंपरा एवं कुरीतियाँ
हमारा समाज आज भी परंपरा के नाम पर अनेक कुरीतियों से भरा पड़ा है चाहे वो दहेज़ हों, डायन, पर्दा प्रथा, तीन तलाक का मुद्दा हो या फिर हलाला का – ये सब महिलाओं को अपमानित एवं नीचा दिखाने के लिए ही बने हैं. दहेज़ ही वो वजह है जिसके कारण महिलाओं का लिंगानुपात पुरुषों की तुलना में कम हो रहा है, लड़कियों की तस्करी बढ़ रही है, वैश्यावृति में इजाफा हो रहा है, रेप एवं छेड़छाड़ जैसे संगीन अपराध के मामले बढ़ रहे हैं.
सामाजिक लिंगभेद को दूर करने का क़ानूनी प्रयास
समाज में लिंग समानता लाने हेतु सरकार के द्वारा क़ानूनी रूप से कई प्रावधान किये गए हैं, पर वास्तविक रूप में ये सब सिर्फ कागज तक ही सीमित है क्यूंकि कानून का अनुपालन सुनिश्चित करने वाले भी मुख्य रूप से पुरुष ही होते हैं एवं इन सब विषयों पर अपने हाथ डालने से परहेज करते हैं. यही कारण है की इन सभी सरकारी योजनाओं और क़ानूनी प्रावधानों के बावजूद भारत में महिलाओं के साथ आज भी द्वितीय श्रेणी के नागरिक के रुप में व्यवहार किया जाता हैं. पुरुष के लिए वे सिर्फ भोग की वस्तु या पारिवारिक जिम्मेदारिओं को पूरा करने वाली के रूप में देखा जाता है. रेलवे स्टेशन, कॉलेज कैंपस, सरकारी परिसर इत्यादि में फ्री wi fi की सुबिधा का ज्यादातर दुरूपयोग पोर्न सामग्री देखने में ही किया जाता है. जिओ इत्यादि मोबाइल सेवा प्रदाताओं बाजारवादी निति के परिणामस्वरूप इन्टरनेट क्षेत्र में क्रांति लाने के साथ ही साथ महिलाओं पर हिंसा बढाने सम्बंधित सामग्री की प्रचुर उपलव्धता भी सोशल मीडिया के माध्यम से धड़ल्ले से उपलव्ध हो रही हैं.
लैंगिक समानता ही लिंग भेद दूर करने का एकमात्र विकल्प है
सामाजिक लिंग भेद के औरतों के खिलाफ होने की वजह से लड़कियों पर अनेकों बंधन होते हैं, उनके खिलाफ पक्षपात होता है, उन पर हिंसा होती है. इसी वजह से लड़कियां लड़कों की तरह आगे नहीं बढ़ पाती, अपना हुनर नहीं दिखा पाती. एक ही घर पर लड़के फलते – फूलते और लड़कियां कुम्हलाती नजर आती हैं. उस लिंग भेद का बुरा असर सिर्फ लड़कियों पर ही नहीं अपितु परिवार, समाज और देश पर पड़ता है. लड़कों पर भी कुछ खास काम, गुण और जिम्मेदारियां थोपी जाती हैं. हमारे समाज में अभी भी बेटों के रूप और गुण की तुलना बाप से की जाती है और बेटियों की माँ से. क्यूँ बेटियां बाप पर नहीं जा सकती है या फिर बेटे माँ पर.
यह लड़ाई एक या दो महिलाओं या पुरुषों द्वारा नहीं लड़ी जा सकती है. हम सब अगर चाहें तो इस सामाजिक लिंगभेद को बदल सकते हैं, लड़के – लड़की, स्त्री – पुरुष की नयी परिभाषाएं दे सकते हैं, हम एक ऐसा समाज बना सकते हैं जहाँ लड़की होने का मतलब कमतर, कमजोर होना नहीं है और लड़का होने का अर्थ क्रूर, हिंसात्मक होना नहीं है. सच तो यह है की हर लड़की और लड़का जो चाहे पहन सकता है, खेल सकता है, पढ़ सकता है, बन सकता है. लड़की होने से ही घर का काम करना, औरों की सेवा करना नहीं आ जाता. लड़का पैदा होने से ही निर्भयता, तेज दिमाग, ताकत आदि नहीं आ जाते. ये सब काम और गुण सीखने सीखाने से आते हैं. जिसकी जैसी परवरिश होगी वो वैसी बन सकती है.
हम चाहे तो ऐसा समाज बना सकते है जिनमे काम, गुण, जिम्मेदारियां, व्यवहार और हुनर किसी लिंग, जाति, रंग और वर्ग के आधार पर थोपे न जाएँ. सब अपनी मर्जी और स्वभाव के मुताबिक काम कर सकें, हुनर सीख सकें और व्यवहार कर सकें.
इन सब के लिए हम सभी लोगो को अपने अपने घरो से शुरुआत करती होगी, जन्म के बाद से ही लडको और लड़कियों में की जाने वाली भेदभाव को मिटाना होगा, उन्हें पढने, खेलने, अपना मन माफिक रोजगार चयन करने, शादी की सही उम्र तय करने, कब और कितने बच्चे पैदा करने, सभी प्रकार के निर्णय लेने में भागीदारी इत्यादि का अधिकार देना होगा तभी महिला – पुरुष समानता की अवधारणा पर आधारित एवं स्वच्छ समाज और देश की कल्पना की जा सकती है.
लेकिन तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था !!
☺कहने को तो महिलाएं अपने माथे के आँचल को परचम बनाने निकल पड़ी हैं, कागजों पर महिला सशक्तीकरण की दिशा में बहुत प्रगति दिखाई जाती है पर वास्तविक स्थिति ठीक इसके विपरीत सा ही प्रतीत होता है. आंकड़े और कहानियों में तो महिलाएं किसी गाँव की मुखिया हैं, शहरों में वार्ड पार्षद हैं, बोर्ड की परीक्षाओं में टॉपर हैं, अपने खुद के व्यवसाय की मालकिन हैं इत्यादि. इसमें कोई दो मत नहीं की महिलाओं की स्थिति में सुधार हो रहा है, पर यह गति बहुत ही धीमी है. शिक्षा, नौकरी, व्यापार से लेकर, स्वास्थ्य, खेल, राजनीति हर जगह महिलाएं सिर्फ नाम मात्र के लिए ही दिखती हैं, जो खुद बखुद उनकी सफलता और बेहतरी की कहानी बयां करता है. इस आलेख के माध्यम से महिलाओं की स्थिति का विश्लेषण करने की कोशिश की गयी है एवं किस प्रकार आदर्श समाज के निर्माण में लैंगिक समानता निर्णायक भूमिका निभाता है, को भी बताने का प्रयास किया गया है.
सामाजिक परंपरा एवं कुरीतियाँ
हमारा समाज आज भी परंपरा के नाम पर अनेक कुरीतियों से भरा पड़ा है चाहे वो दहेज़ हों, डायन, पर्दा प्रथा, तीन तलाक का मुद्दा हो या फिर हलाला का – ये सब महिलाओं को अपमानित एवं नीचा दिखाने के लिए ही बने हैं. दहेज़ ही वो वजह है जिसके कारण महिलाओं का लिंगानुपात पुरुषों की तुलना में कम हो रहा है, लड़कियों की तस्करी बढ़ रही है, वैश्यावृति में इजाफा हो रहा है, रेप एवं छेड़छाड़ जैसे संगीन अपराध के मामले बढ़ रहे हैं.
सामाजिक लिंगभेद को दूर करने का क़ानूनी प्रयास
समाज में लिंग समानता लाने हेतु सरकार के द्वारा क़ानूनी रूप से कई प्रावधान किये गए हैं, पर वास्तविक रूप में ये सब सिर्फ कागज तक ही सीमित है क्यूंकि कानून का अनुपालन सुनिश्चित करने वाले भी मुख्य रूप से पुरुष ही होते हैं एवं इन सब विषयों पर अपने हाथ डालने से परहेज करते हैं. यही कारण है की इन सभी सरकारी योजनाओं और क़ानूनी प्रावधानों के बावजूद भारत में महिलाओं के साथ आज भी द्वितीय श्रेणी के नागरिक के रुप में व्यवहार किया जाता हैं. पुरुष के लिए वे सिर्फ भोग की वस्तु या पारिवारिक जिम्मेदारिओं को पूरा करने वाली के रूप में देखा जाता है. रेलवे स्टेशन, कॉलेज कैंपस, सरकारी परिसर इत्यादि में फ्री wi fi की सुबिधा का ज्यादातर दुरूपयोग पोर्न सामग्री देखने में ही किया जाता है. जिओ इत्यादि मोबाइल सेवा प्रदाताओं बाजारवादी निति के परिणामस्वरूप इन्टरनेट क्षेत्र में क्रांति लाने के साथ ही साथ महिलाओं पर हिंसा बढाने सम्बंधित सामग्री की प्रचुर उपलव्धता भी सोशल मीडिया के माध्यम से धड़ल्ले से उपलव्ध हो रही हैं.
लैंगिक समानता ही लिंग भेद दूर करने का एकमात्र विकल्प है
सामाजिक लिंग भेद के औरतों के खिलाफ होने की वजह से लड़कियों पर अनेकों बंधन होते हैं, उनके खिलाफ पक्षपात होता है, उन पर हिंसा होती है. इसी वजह से लड़कियां लड़कों की तरह आगे नहीं बढ़ पाती, अपना हुनर नहीं दिखा पाती. एक ही घर पर लड़के फलते – फूलते और लड़कियां कुम्हलाती नजर आती हैं. उस लिंग भेद का बुरा असर सिर्फ लड़कियों पर ही नहीं अपितु परिवार, समाज और देश पर पड़ता है. लड़कों पर भी कुछ खास काम, गुण और जिम्मेदारियां थोपी जाती हैं. हमारे समाज में अभी भी बेटों के रूप और गुण की तुलना बाप से की जाती है और बेटियों की माँ से. क्यूँ बेटियां बाप पर नहीं जा सकती है या फिर बेटे माँ पर.
यह लड़ाई एक या दो महिलाओं या पुरुषों द्वारा नहीं लड़ी जा सकती है. हम सब अगर चाहें तो इस सामाजिक लिंगभेद को बदल सकते हैं, लड़के – लड़की, स्त्री – पुरुष की नयी परिभाषाएं दे सकते हैं, हम एक ऐसा समाज बना सकते हैं जहाँ लड़की होने का मतलब कमतर, कमजोर होना नहीं है और लड़का होने का अर्थ क्रूर, हिंसात्मक होना नहीं है. सच तो यह है की हर लड़की और लड़का जो चाहे पहन सकता है, खेल सकता है, पढ़ सकता है, बन सकता है. लड़की होने से ही घर का काम करना, औरों की सेवा करना नहीं आ जाता. लड़का पैदा होने से ही निर्भयता, तेज दिमाग, ताकत आदि नहीं आ जाते. ये सब काम और गुण सीखने सीखाने से आते हैं. जिसकी जैसी परवरिश होगी वो वैसी बन सकती है.
हम चाहे तो ऐसा समाज बना सकते है जिनमे काम, गुण, जिम्मेदारियां, व्यवहार और हुनर किसी लिंग, जाति, रंग और वर्ग के आधार पर थोपे न जाएँ. सब अपनी मर्जी और स्वभाव के मुताबिक काम कर सकें, हुनर सीख सकें और व्यवहार कर सकें.
इन सब के लिए हम सभी लोगो को अपने अपने घरो से शुरुआत करती होगी, जन्म के बाद से ही लडको और लड़कियों में की जाने वाली भेदभाव को मिटाना होगा, उन्हें पढने, खेलने, अपना मन माफिक रोजगार चयन करने, शादी की सही उम्र तय करने, कब और कितने बच्चे पैदा करने, सभी प्रकार के निर्णय लेने में भागीदारी इत्यादि का अधिकार देना होगा तभी महिला – पुरुष समानता की अवधारणा पर आधारित एवं स्वच्छ समाज और देश की कल्पना की जा सकती है.
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