Hindi, asked by moonarmy7886, 1 year ago

give an essay on paryavaran santulan

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Answered by Dia095
226
प्रकृति और पर्यावरण के बीच बहुत गहरा संबंध है। 'पर्यावरण' प्रकृति की ही देन है। पर्यावरण पृथ्वी के चारों ओर के वातावरण को कहा जाता है तथा प्रकृति पृथ्वी में विद्यमान सौंदर्य को कहा जाता है। प्रकृति में पेड़, पहाड़, नदी, समुद्र, बादल, पक्षी, हरियाली, फूल इत्यादि आते हैं। पर्यावरण और प्रकृति मनुष्य के लिए बहुत आवश्यक हैं। हमारे जीने के लिए आवश्यक तत्वों को बनाए रखने के लिए उसने समस्त बातों का ध्यान रखा है। पर्यावरण पृथ्वी को चारों से ढक के हमारी रक्षा करता है। इस तरह प्रकृति हमारी हर छोटी-बड़ी आवश्कताओं को पूरा करती है। प्रकृति इस बात का ध्यान भी रखती है कि पृथ्वी पर हो रही हर छोटी बड़ी पक्रिया में संतुलन बना रहे। यदि प्रकृति के स्वरूप के साथ छेड़छाड़ की जाती है, तो इसका परिणाम हमें पर्यावरण में साफ तौर पर दिखाई देता है। जैसे पहाड़ों पर बर्फ जमती है। वह पिघलकर नदी का रूप धारण कर लेती है और अंततः सागर में जाकर मिल जाती है। सागर का जल वाष्पित होकर बादलों का रूप धारण कर लेता है तथा वह बर्फ व वर्षा के रूप में फिर से नदी में जा मिलता है। इस तरह यह क्रम चलता रहता है और प्रकृति एक सुंदर संतुलन बनाए रखती है। परन्तु मनुष्य ने प्रकृति के संतुलन में हस्तक्षेप कर असंतुलन की स्थिति बना दी है। प्रकृति में यदि असंतुलन पैदा होता है, तो असमय बाढ़, सुखा तथा प्रलय की स्थिति आ बनती है। वनों के काटे जाने से पर्यावरण में प्रदूषण की मात्रा बढ़ गई है। जहरीली गैसों ने पर्यावरण को भी नुकसान पहुँचाना आरंभ कर दिया है। इससे भंयकर स्थितियाँ पैदा हो सकती है। अतः हमें चाहिए कि प्रकृति का दोहन करने के स्थान पर उसका पोषण करे तभी हम स्वयं के लिए सुरक्षित कल बना पाएँगे। प्रकृति का महत्व हम भुला नहीं सकते हैं। इसके बिना हम अपनी कल्पना नहीं कर सकते हैं।



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Answered by shubhshubhi2020
73

Answer:

मनुष्य की प्रकृति पर निर्भरता आदि काल से ही चली आ रही है । इसीलिए विश्व की प्रत्येक सभ्यता में प्रकृति की पूजा का प्रावधान है । प्राचीन भारतीय समाज भी प्रकृति के प्रति बहुत ही जागरूक था । वैदिक काल में प्रकृति के विभिन्न अंगों भूमि, पर्वत, वृक्ष, नदी, जीव-जन्तु आदि की पूजा की जाती थी ।

प्रकृति के प्रति मनुष्य की इस असीम श्रद्धा के कारण पर्यावरण स्वतः सुरक्षित था । विकास की अंधी दौड में मनुष्य ने प्रकृति को अत्यधिक नुकसान पहुँचाना शुरू कर दिया । एक सीमा तक प्रकृति उस नुकसान की भरपाई स्वयं कर सकती थी, लेकिन जब उसकी स्वतः पूर्ति की सीमा समाप्त हो गई तो पर्यावरण असंतुलित हो गया ।

उत्पादन के प्रक्रम में इनसे विभिन्न हानिकारक अपशिष्टों का उत्सर्जन होता है । ये पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले सबसे प्रमुख कारक हैं । परिवहन के विकास एक ने खनिज तेलों उपभोग को बहुत बढ़ा दिया है । इनके ज्वलन से SO2, CO2, CO आदि जैसी हानिकरण गैसें निकलती है जो वायु प्रदूषण को फैला रही हैं ।

कृषि में भी रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशको का उपयोग बढता जा रहा है । ये सब तात्कालिक रूप से लाभप्रद दिखते हैं । लेकिन दीर्घकाल में इनके दुष्परिणाम बहुत ही भयानक होते हैं । इसी प्रकार अन्य विकासात्मक कार्य जैसे-सड़क निर्माण बाँध रेलवे खनन आदि भी पर्यावरणीय नुकसान में अपना योगदान करते हैं ।

साथ ही कुछ परम्परागत कारण, जैसे- वनों का दोहन, अवैध कटाई आदि, भी पर्यावरण संतुलन को बिगाडते हैं । वर्तमान में आर्थिक विकास की होड़ में विश्व के सभी राष्ट्र अपने औद्योगिक विकास को हर कीमत पर जारी रखना चाहते हैं । इसके लिए वे पर्यावरण के लिए अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा करने लगे हैं ।

विकसित राष्ट्र अपने दायित्वों को स्वीकार न करते हुये सारा दोष विकासशील राष्ट्रों पर डाल देते हैं । वहीं विकासशील देश अपनी विकास की मजबूरियों का हवाला देते है । इन कारणों से पर्यावरण संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय चिन्ताएँ तो व्यक्त की जाती हैं लेकिन कोई ठोस पहल नहीं हो पाती है ।

इसके उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है कि अमेरिका क्योटो संधि में शामिल नहीं हुआ है । यदि विश्व का सबसे सम्पन्न राष्ट्र ही किसी ऐसे प्रयास का हिस्सा नहीं है तो उसकी सफलता स्वतः संदिग्ध हो जाती है ।

यहाँ यह समझने की आवश्यकता है कि मनुष्य को पर्यावरण की रक्षा के लिए अपनी विकासात्मक गतिविधियों को रोकना जरूरी नहीं है । लेकिन इतना जरूर है कि हमें पर्यावरण की कीमत पर विकास नहीं करना चाहिए क्योंकि विकास से अभिप्राय समग्र विकास होता है केवल आर्थिक उन्नति नहीं । यदि हम मात्र इतना ध्यान रखे कि ये पेड-पौधे नदिया-तालाब. वन्य-जीव हमसे पिछली पीढ़ी ने हम तक सुरक्षित पहुँचाया है ।

अतः हमारा दायित्व है कि हम इसे अपनी आने वाली पीढी तक सुरक्षित पहुँचाये । केवल इतना करने से ही विकास के नाम पर पर्यावरण को होने वाली क्षति समाप्त हो जायेगी । यही सतत विकास की संकल्पना का आधार है । पिछले कुछ दशकों से पर्यावरण असंतुलन की स्थिति बहुत ही भयावह हो गई है । प्रकृति के साथ सदियों से चली आ रही कुरता के दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं ।

ग्लेशियरों का पिघलना, अरब के रेगिस्तानों में भारी वर्षा, ओजोन परत में छिद्र, बाढ, भूकम्प, अम्ल वर्षा, सदानीरा नदियों का सूखना फसल चक्र का प्रभावित होना जैव-विविधता में तीव्र गति से हास होना आदि असंतुलित पर्यावरण की ही अभिव्यक्ति है । इंटर गवर्नमेन्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने अपनी रिपोर्ट में बहुत ही गंभीर आशंकायें व्यक्त की हैं ।

उसके अनुसार पर्यावरण असंतुलन से वैश्वक तापन की स्थिति उत्पन्न हो रही हैं । इससे समुद्र का तल बढ़ेगा जिससे बहुत से छोटे द्वीप डूब जायेंगे तटवर्ती शहरों में पानी भर जायेगा दूंगी आदि की चट्‌टानें विलुप्त हो जायेंगी । अब विश्व के सभी देश पर्यावरण असंतुलन की गंभीर स्थिति को समझ चुके है ।

नवम्बर 2007 में सम्पन्न आसियान के 13वें शिखर सम्मेलन का विचारणीय विषय ऊर्जा, पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन तथा सतत विकास रखा गया था । इसी प्रकार जी-8 सम्मेलन में भी पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति पर चिन्ता व्यक्त की गई हैं ।

इंडोनेशिया के बाली में सम्मन्न संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन 2007 में 180 देशों एवं अनेक संगठनों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया । इस सम्मेलन में क्योटो सन्धि के आगे की रणनीति पर विचार किया गया । इसमें बाली रोड मैप पर सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर हुये ।

इसमें ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने हेतु वार्ताओं का प्रावधान है । क्योटो संधि के विपरीत इसमें पर्यावरण असंतुलन एक ऐसा मुद्दा है जिससे पूरी दुनिया पर प्रभाव पड़ेगा । इसीलिए विकसित-विकासशील छोटे-बड़े प्रत्येक देश को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए ।

विकसित देशों का यह दायित्व बनता है कि वे विकाशील देशों को पर्यावरण अनुकूल तकनीकी का हस्तांतरण करें साथ ही विकासशील देशों को पर्याप्त वित्तीय सहयोग प्रदान करें जिससे वे पर्यावरण को हानि पहुँचाये बिना अपने विकास की योजना बना सके ।

पर्यावरण असंतुलन से निपटने की जिम्मेदारी केवल देशों या सरकारों की ही नहीं है । इसके प्रभावी हल के लिए प्रत्येक व्यक्ति को प्रयास करना होगा । आखिर इसकी वर्तमान खराब स्थिति के लिए भी हम स भी ही जिम्मेदार हैं ।

हमें यह महसूस करना होगा कि मनुष्य जीव-जन्तु, पर्वत, नदी, वन आदि सभी प्रकृति के अंग हैं । ये सब परस्पर निर्भर हैं । यदि प्रकृति हमारे उप भोग के लिए साधन प्रदान करती है तो हमें भी इसके संवर्धन के लिए कार्य करना होगा । इसी से हमारा पर्यावरण सुन्दर व संतुलित बना रहेगा ।

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