हॉसी मनझष्य के स्वभाव का अभभन्न अॊग है। शायद ही कोई मनझष्य ऐसा हो, जो
कभी-न-कभी हॉस या मझसकझरा न देता हो। हॉसना ककसी का ववशेषाधधकार नहीॊ है। राजा से
ऱेकर रॊक तक सभी हॉसत े हैं। अॊतर के वऱ इतना ही है कक कोई कम और कोई
अधधक हॉसता है। हॉसी के अनधगनत ववषय हो सकते हैं, और हॉसने वाऱे ऱोग भी
तरह-तरह के होते हैं। हास्य का एक जझड़वा भाई है- व्यॊग्य। दोनों एक समान होने से
ऱोग अकसर भ्रम में ऩड़ जाते हैं। कभी हास्य में व्यॊग्य छिऩा होता है तो कभी
व्यॊग्य हास्य ऩैदा करता है। हास्य अधधकाॊशत् स्थऱू होता है। ककस बात ऩर हॉसा
गया है, इसे समझते देर नहीॊ ऱगती, ऱेककन व्यॊग्य अधधकतर सूक्ष्म होता है। अच्िे
व्यॊग्य की खबी ू यह है कक जजस ऩर व्यॊग्य ककया जाए, वह भी बबना हॉसे न रह
सके । व्यॊग्य जजतना सूक्ष्म होगा उतना ही उत्कृष्ट होगा।
क) हॉसी को मनझष्य के स्वभाव का अॊग क्यों कहा गया है? (2)
ख) ऱोगों को ककस बात में भ्रम उत्ऩन्न हो जाता है? (2)
ग) हास्य और व्यॊग्य में क्या अॊतर है? (2)
घ) अच्िे व्यॊग्य की क्या ववशेषता है? (2)
ङ) उऩयझक्ु त गदयाॊश का उधित शीषुक भऱखिए, और यह भी बताइए कक आऩने इस शीषुक का
िनझ ाव क्यों ककया?
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make me as the brainless
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