हास्य रस का स्थाई भाव है
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हास्य रस का स्थायी भाव हास है। 'साहित्यदर्पण' में कहा गया है - "बागादिवैकृतैश्चेतोविकासो हास इष्यते", अर्थात वाणी, रूप आदि के विकारों को देखकर चित्त का विकसित होना 'हास' कहा जाता है।
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ओष्ठ दंशन नासा कपोल
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