हिंदी निबंध - बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय
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संत कबीर दास हिंदी के एक ऐसे कवि हैं, जिन्होंने जो भी कहा है अपने अनुभव के आधार पर कहा है। उन्होंने किताबी ज्ञान या शास्त्रों में वर्णित सत्य के बजाय आंखों देखी अनुभवगम्य सत्य को महत्व दिया है। इसलिए उनके कथन हमारे जीवन के लिए, चरित्र निर्माण के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। कबीर ने अपने एक दोहे में कहा है
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल ढूंढा आपना मुझसे बुरा न कोई।।
इसका भावार्थ यह है कि मैं जब बाहर बुरे की खोज में निकला तो मुझे कोई भी बुरा नहीं मिला, लेकिन जब मैंने अपने आपको, अपने दिल को टटोला तो मुझसे अधिक बुरा कोई नहीं निकला। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति जब अपने आपको टटोलता है, अपना आत्मसाक्षात्कार करता है तब उसे महसूस होता है की बुराई तो उसी के अंदर है उसे ढूंढने के लिए बाहर जाने की क्या जरूरत है।
मनुष्य की प्रवृत्ति प्रायः बहिर्मुखी होती है। वह बाहर की वस्तुओं को देखता, सुनता और समझता है। बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण वह दूसरों के गुण और अवगुण सब देखता है, परंतु दूसरों के गुणों के स्थान पर अवगुणों पर ज्यादा ध्यान देकर वह दूसरों को हीन दिखाना चाहता है। इसका मुख्य कारण है मनुष्य का अहम भावों से ग्रसित होना। प्रायः मनुष्य में अपने आपको श्रेष्ठ समझने की भावना होती है, जबकि दूसरों को वह अपने से हीन और कमजोर समझता है। अपने इसी स्वभाव के कारण वह हमेशा दूसरों में बुराइयां ही ढूंढता रहता है, जबकि अपनी अच्छाइयों का हमेशा बखान करता रहता है तथा ऐसा करके वह खुद को संतुष्ट अनुभव करता है। कबीर है एक अन्य दोहे में किसी भाग को कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया है
दुर्जन दोष पराए लखि चलत हसंत हसंत
अपने दोष ना देखहिं जाको आदि ना अंत
दूसरों की बुराई देखने की इस प्रवृत्ति के कारण मनुष्य किसी को अपना नहीं बना सकता। अपनी इस प्रवृत्ति के कारण वह अपने प्रिय मित्रों से भी दूर हो जाता है। संसार में प्रत्येक व्यक्ति के अंदर अच्छाई भी होती है और बुराई भी, लेकिन केवल बुराई को या दोषों को देखने की प्रवृत्ति के कारण मतभेद उत्पन्न हो जाता है जिससे वैमनस्य तथा द्वेष फैलता है। वैमनस्य, द्वेष, फूट आदि के कारण न व्यक्ति को फायदा होता है, न समाज को और न ही देश को। इसके कारण समाज में फूट उत्पन्न हो जाती है और वह विनाश का कारण बन जाती है। दोष देखने की इस प्रवृत्ति के कारण एक धर्म, क्षेत्र, भाषा या जाति वाले को दूसरे धर्म, क्षेत्र, भाषा या जाति वाले लोग अच्छे नहीं लगते। वह एक दूसरे की कमियां ही खोजते रहते हैं, जिससे परस्पर मनमुटाव और उन्माद ही बढ़ता है। लेकिन जब हम सब ‘एक ही भारत माता के पुत्र हैं’ कहते हैं तो धर्म, क्षेत्र, भाषा या जाति आदि के विचार गौण हो जाते हैं और हमारी अच्छाई को देखने की प्रवृत्ति मुख्य हो जाती है।
वस्तुतः दूसरों की बुराई ढूंढना या दोष देखना दुष्टों का काम है, सज्जनों का नहीं। सज्जन लोग तो हमेशा दूसरों में अच्छाई ही देखते हैं, उसके सकारात्मक पक्षों की ही चर्चा करते हैं तथा गुणों की प्रशंसा करते हैं। यदि कोई बुराई, त्रुटि या अवगुण होता भी है तो उसे मधुर तथा संयमित भाषा में सुधार की दृष्टि से कहते हैं ताकि वह व्यक्ति सही मार्ग पर चल सके तथा अपनी बुराइयों को दूर कर सकें।
मनुष्य को दूसरों की ओर देखने की बजाए अपने अंदर झांकना चाहिए। अपने ह्रदय को टटोलने से व्यक्ति को अपनी बुराइयों का, अपनी कमजोरियों का पता चल सकता है। यदि अपने अवगुणों पर गौर करके वह उन्हें दूर करने का प्रयत्न करें तो फिर सफलता अवश्यंभावी है। अतः अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए व्यक्ति को आत्मचिंतन की प्रवृत्ति को विकसित करना चाहिए। ऐसा चिंतन करने से मनुष्य अपने दोषों के प्रति सजग हो जाता है और दूसरे के दोष देखने की प्रवृत्ति खत्म होने लगती है। इसका लाभ यह होता है कि मनुष्य धीरे-धीरे अपने अवगुणों को त्यागने लगता है और सद्गुणों को ग्रहण करने में प्रवृत्त हो जाता है। सद्गुण एकत्र करने की प्रवृत्ति उसे पवित्र बना देती है और इसी कारण वह जो कुछ भी प्राप्त करना चाहता है, प्राप्त कर लेता है। विश्व के सभी महापुरुषों में यही प्रवृत्ति देखने को मिलती है।