निंदा रस निबंध का भावार्थ Ninda Ras Summary in Hindi
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हरिशकंर परसाई द्वारा रचित निबंध ‘निंदा-रस’ एक व्यंग्य-प्रधान रचना है, जिसमें लेखक ने समाज में व्याप्त निंदा नामक बुराई से मनुष्य को बचने के लिए प्रेरित किया है। लेखक के अनुसार निंदा करना अथवा किसी की निंदा सुनना उचित नहीं है क्योंकि इससे मनुष्य अपनी विश्वसनीयता खो देता है और परस्पर वैरभाव उत्पन्न हो जाता है। इस बात को स्पष्ट करते हुए लेखक बताता है कि उसका ‘क’ नामक एक मित्र है, जो बहुत दिनों बाद लेखक से मिलने आता है, लेखक से मिलने से पहले उसके मित्र ‘ग’ से एक दिन पहले मिलकर उस के सामने लेखक की बहुत निंदा करता है। यह बात लेखक को पता चलती है तो वह अगले दिन ’क’ के उससे मिलने आने पर ‘क’ के प्रति रूखा व्यवहार करता है। यदि ‘क’ ‘ग’ से लेखक की निंदा न करता तो लेखक का उसके प्रति ऐसा व्यवहार नहीं होता।
लेखक निन्दा को मुख्यरूप से ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित मानता है। जब कोई व्यक्ति अकर्मण्य होने के कारण स्वयं उन्नति नहीं कर पाता तो वह दूसरे की उन्नति देखकर उससे ईर्ष्या करने लगता है और उसकी निंदा करने लगता है। कुछ लोग तो चौबीसो घण्टे निन्दा करने में ही लगे रहते हैं। लेखक के अनुसार निंदक मिशनरी, ईर्ष्यालु और संघीय तीन प्रकार के होते हैं। मिशनरी निंदक बिना किसी कारण के ही किसी की भी निंदा कर सकते हैं। ईर्ष्यालु निंदक किसी की उन्नति पसंद न करने के कारण उसकी निन्दा करते हैं और संघ बनाकर निन्दा करन वाले एक दूसरे के द्वारा किसी की भी निन्दा का सर्वत्र प्रचार करते हैं।
लेखक ने यह भी माना है कि कुछ लोग निन्दारूपी पूंजी से अपना लम्बा-चौड़ा व्यापार फैला लेते हैं। इस प्रकार के लागे दूसरों की कमियों को नमक-मिर्च लगाकर रोचकरूप में दूसरों के सामने वर्णन करके स्वयं को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। इस प्रकार के लोग चापलूस किस्म के होते हैं। वे दूसरे की कमज़ोरी का लाभ उठाने के लिए उसके सामने उसके दुश्मन की निंदा करके अपना लाभ उठा लेते हैं। ‘क’ ने भी लेखक के सामने उसके विरोधियों की निंदा करके लेखक की सद्भावना प्राप्त कर ली थी।
लेखक निन्दा न करने की प्रेरणा देता है क्यों क निन्दा करने वाले आत्महीनता के शिकार होते हैं। वे आलसी, अकर्मण्य और झूठे बन जाते हैं। लोग उनका विश्वास नहीं करते। अच्छे लागे उन्हें अपने पास भी नहीं फटकने देते। वे सदा दूसरों के दोष देखते रहते हैं।
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निंदा रस का सार इस प्रकार है-
- हरिशंकर परसाई का यह पाठ समाज में प्रचलित अज्ञानता, अभिमान, स्वार्थ और छल की कड़ी निंदा हैI हरिशंकर परसाई की आलोचना आम तौर पर तीखी होती है।
- यहाँ लेखक ने आलोचना को नवरासो में से एक माना है। उनका मानना है कि हर कोई आलोचना में डुबकी लगाता है और उसका आनंद लेता है। उनकी राय में, आलोचना की महानता अपराजेय है।
- एक बार लेखक की अपने मित्र से अप्रत्याशित भेंट हुई। दोस्त ने घंटों बकवास बातें की और दूसरों की आलोचना की और फिर चला गया।
- लेखक का उन लोगों से कोई लेना-देना नहीं था जिनकी उसके मित्र ने आलोचना की थी। ऐसे आलोचक दूसरों की निन्दा करने में स्वयं को धन्य समझते हैं।
- दूसरों की आलोचना करना उनके लिए टॉनिक के समान है
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