हाय कंगत को आरसी
क्या
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प्रथम मुहावरे का शाब्दिक अर्थ है जिस प्रकार हाथ मे पहने हुए कंगन को देखने हेतु आरसी अर्थात् दर्पण की कोई आवश्यकता नही होती उसी प्रकार प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नही होती। ... अत: उपरोक्त कहावत का अर्थ है- प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नही होती तथा पढ़े लिखे अर्थात् साक्षर व्यक्ति के लिए कुछ भी सिखना मुश्किल नही है।
Explanation:
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जैसा कि सभी ने बताया कि इस कहावत के दो पद हैं। पहला पद है “हाथ कंगन को आरसी क्या” दूसरा पद है “पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या”। इन दोनों पदों की भाषा आधुनिक हिन्दी है। अगर आरसी शब्द को छोड़ दें तो कहावत का एक भी शब्द ऐसा नहीं है जिसे समझने में मुश्किल हो। आरसी यानी आईना, मिरर, शीशा। हिन्दी में में अब आरसी शब्द का प्रचलन नहीं रहा परन्तु मराठी में इसका रूप आरसा होता है और यह खूब प्रचलित है। तो “हाथ कंगन को आरसी क्या” वाला पूर्वपद अपने आप में पूरी कहावत है।रूप-सिंगार के लिए आईना होना बेहद ज़रूरी है, किन्तु सजन-सँवरने की सभी क्रियाओं के लिए आईना हो, ये ज़रूरी नहीं। मसलन हाथों में कंगन पहनना है तो यूँ भी पहना जा सकता है, उसके लिए आईने की ज़रूरत क्या? इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि चेहरा देखना हो तो शीशा आवश्यक है किन्तु हाथ-पैर के गहने देखने के लिए आईने की क्या ज़रूरत। वो तो यूँ भी देखे जा सकते हैं। कोई स्त्री अपने हाथों के कंगन या मेहँदी की सज्जा आईने में नहीं देखती।इस कहावत के दूसरे पद को समझने के लिए इसकी बुनियाद समझना ज़रूरी है। मुस्लिम काल की राजभाषा फ़ारसी थी। जिस तरह ब्रिटिश राज में अंग्रेजी जानने वाले की मौज थी और तत्काल नौकरी मिल जाती थी उसी तरह मुस्लिम काल में फ़ारसी का बोलबाला था। हिन्दू लोग फ़ारसी नहीं सीखते थे क्योंकि यवनों, म्लेच्छों की भाषा थी। हिन्दुओं के कायस्थ तबके में विद्या का वही महत्व था जैसा बनियों में धनसंग्रह का। कायस्थों का विद्याव्यवसन नवाचारी था। नई-नई भाषाओं के ज़रिये और ज्ञान का क्षेत्र और व्यापक हो सकता है यह बात उनकी व्यावहारिक सोच को ज़ाहिर करती है। उन्होंने अरबी भी सीखी और फ़ारसी भी। नवाबों के मीरमुंशी ज्यादातर कायस्थ ही होते थे। रायज़ादा, कानूनगो, मुंशी, बहादुर यहाँ तक की नवाब जैसी उपाधियाँ इन्हें मिलती थी और बड़़ी बड़ी जागीरें भी।
तो इस तरह मुस्लिम दौर में फ़ारसीदाँ होना और पढ़ा-लिखा होना परस्पर पर्याय था। जब शिक्षा का माध्यम ही फ़ारसी हो, तब किसी शख़्स का यह कहना कि उसे फ़ारसी नहीं आती ग़ैरमुमकिन सी बात थी। इसे यूँ भी कह सकते हैं उस दौर के तमाम उदार हिन्दू तबके ने फ़ारसी सीखी जो बदलते दौर में अपना और अपनी क़ौम के बेहतर भविष्य का सपना देखता था। कायस्थों, ब्राह्मणों, वणिकों यहाँ तक कि क्षत्रियों में भी ऐसे तमाम लोग थे। ग्यारहवीं-बारहवीं सदी तक हिन्दू समाज से ऐसे तमाम लोग फ़ायदे में रहे जिन्होंने अरबी-फ़ारसी सीखी।
शायद इन्हीं दो वाक्यों की तुकबंदी से यह कहावत अस्तित्व में आयी होगी