ham dharti ko maa kyo kehte hai?
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‘आदि काल से ही पृथ्वी को मातृभूमि की संज्ञा दी गई है... भारतीय अनुभूति में पृथ्वी आदरणीय बताई गई है… इसीलिए पृथ्वी को माता कहा गया… महाभारत के यक्ष प्रश्नों में इस अनुभूति का खुलासा होता है… यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था कि आकाश से भी ऊंचा क्या है और पृथ्वी से भी भारी क्या है? युधिष्ठिर ने यक्ष को बताया कि पिता आकाश से ऊंचा है और माता पृथ्वी से भी भारी है… हम उनके अंश हैं… यही नहीं इसका साक्ष्य वेदों (अथर्ववेद और यजुर्वेद) में भी मिलता हैं… यही नहीं सिंधु घाटी सभ्यता जो 3300-1700 ई.पू. की मानी जाती है… विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी… सिंधु सभ्यता के लोग भी धरती को उर्वरता की देवी मानते थे और पूजा करते थे…
वेदों का उद्घोष – अथर्ववेद में कहा गया है कि ‘माता भूमि’:, पुत्रो अहं पृथिव्या:। अर्थात भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं… यजुर्वेद में भी कहा गया है- नमो मात्रे पृथिव्ये, नमो मात्रे पृथिव्या:। अर्थात माता पृथ्वी (मातृभूमि) को नमस्कार है, मातृभूमि को नमस्कार है।
वाल्मीकि रामायण- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ (जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी उपर है।)
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दिनों में भारतमाता की छबि बनी।
प्रसिद्ध बांगला लेखक और साहित्यकार भूदेव मुखोपाध्याय के 1866 में लिखे व्यंग्य – ‘उनाबिम्सा पुराणा’में ‘भारत-माता’ के लिए ‘आदि-भारती’ शब्द का उपयोग किया गया था।
किरण चन्द्र बन्दोपाध्याय का नाटक भारत माता सन् 1873 में सबसे पहले खेला गया था।
बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनंदमठ में सन् 1882 में वन्दे मातरम् गीत सम्मिलित था जो शीघ्र ही स्वतंतरता आन्दोलन का मुख्य गीत बन गया।
1905 में प्रसिद्ध चित्रकार अवनींद्र नाथ टैगोर ने भारतमाता को चारभुजाधारी हिन्दू देवी के रूप में चित्रित किया जो केसरिया वस्त्र धारन किये हैं; हाथ में पुस्तक, माला, श्वेत वस्त्र तथा धान की बाली लिये हैं।
सन् 1936 में बनारस में शिव प्रसाद गुप्त ने भारतमाता का मन्दिर निर्मित कराया। इसका उद्घाटन गांधीजी ने किया।
हरिद्वार में सन् 1983 में विश्व हिन्दू परिषद ने भारतमाता का एक मन्दिर बनवाया।
‘अथर्ववेद’ के श्लोक में मातृभूमि का स्पष्ट उल्लेख है… अथर्ववेद 63 ऋचाएं हैं, जो पृथ्वी माता की स्तुति में समर्पित की गई हैं… अथर्ववेद के बारहवें कांड के प्रथम सूक्त में 63 मंत्र हैं, वे सभी मातृभूमि की वंदना में अर्पित किए गए हैं… इस सूक्त को ‘भूमि सूक्त’ कहा जाता है… भूमि सूक्त कहने का कारण संभवत: यही था कि इस सूक्त के मंत्रों में केवल भूमि की चर्चा की गई है… इसी सूक्त के कुछ मंत्रों में भूमि को माता कहकर संबोधित किया गया है तथा उसे राजा (इन्द्र) द्वारा रक्षित बतलाया गया है… अथर्वन ऋषि की इन 63 ऋचाओं में धरती के तमाम अंगों-उपांगों, उसके बदलते रूपों का पूरी आस्था के साथ विवरण है…
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