हमे भाग्यवादी नहीं होना चाहिये पर एक लघु निबंध
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भाग्यवादी/परिश्रमी पर निबंध
संसार में मनुष्य की प्रतिष्ठा का सबसे बड़ा आधार उसका कर्म है। गीता में भी कृष्ण ने अर्जुन को यही उपदेश दिया था—'कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः' अर्थात् कर्म करने वाला व्यक्ति निष्क्रिय रहने वाले से श्रेष्ठ है। यदि सौभाग्य से कर्म के साथ प्रतिभा का भी योग हो तो सोने में सुगंध के समान है।
प्राय: देखा जाता है कि प्रतिभा संपन्न व्यक्ति कर्मठता के अभाव में अपनी योग्यता और क्षमता का समुचित उपयोग नहीं कर पाता है। मंदगति से चलने वाली चींटी भी अपने कर्मठ स्वभाव के कारण सैकड़ों योजन तक चली जाती है, किंतु न चलता हुआ गरुड़ जैसा तीव्रगामी पक्षी एक कदम भी नहीं चल पाता।
अकसर लोग शिकायत करते हैं कि मेरे पास समय नहीं है, नहीं तो मैं बहुत कुछ कर सकता हूँ। ऐसे व्यक्ति से प्रश्न किया जा सकता है कि सभी प्रकार के कार्यों को करने के लिए दूसरे व्यक्तियों को भी 24 घंटे का ही समय ईश्वर ने दिया है तब वे कैसे इन कामों को कर लेते हैं ? वास्तविकता यह है कि किसी भी कार्य में आगे बढ़ने के लिए कर्मठता की आवश्यकता होती है। साबुन और पानी की व्यवस्था होने पर भी क्या मैले कपड़े बिना इच्छा और उचित परिश्रम के धोए जा सकते हैं? हमें वस्त्रों के साथ साबुन और पानी का समुचित योग करना ही पड़ेगा। श्रम जरूरी है। साधन और सामग्री हो, लेकिन श्रम न हो तो कुछ भी नहीं किया जा सकता।
इस संसार में कुछ व्यक्ति भाग्यवादी होते हैं और कुछ केवल अपने पुरुषार्थ पर भरोसा रखते हैं। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि भाग्यवादी व्यक्ति ईश्वरीय इच्छा को सर्वोपरि मानते हैं और अपने प्रयत्नों को गौण मान बैठते हैं। वे विधाता का ही दूसरा नाम भाग्य को मान लेते हैं। भाग्यवादी कभी-कभी अकर्मण्यता की स्थिति में भी आ जाते हैं। उनका कथन होता है कि कुछ नहीं कर सकते, सब कुछ ईश्वर के अधीन है। हमें उसी प्रकार परिणाम भुगतान पड़ेगा जैसे भगवान चाहेगा। भाग्योदय शब्द में भाग्य प्रधान है। एक अन्य शब्द है-सूर्योदय। हम जानते हैं कि उदय सूरज का नहीं होता। सूरज तो अपनी जगह पर रहता है, चलती-घूमती तो धरती ही है। फिर भी सूर्योदय हमें बहुत शुभ और सार्थक मालूम होता है। भाग्य भी इसी प्रकार है। हमारा मुख सही भाग्य की तरफ हो जाए तो इसे भाग्योदय मानना चाहिए।
जीवन की सफलता के लिए परिश्रम की नितांत आवश्यकता है। आलसी और अकर्मण्य व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं होता। वह पशु के समान इस पृथ्वी पर जन्म लेता है और मर जाता है। उसी मनुष्य का जीवन सार्थक है जिसने अपने अथक परिश्रम से अपनी व अपने देश की उन्नति की।
गति का दूसरा नाम ही जीवन है। जिस मनुष्य के जीवन में गति नहीं, वह आगे नहीं बढ़ सकता। वह उस तालाब के समान है जिसमें न पानी कहीं से आता है और न निकलता ही है। वर्षा हुई तो थोड़ा भर गया और उसमें सडता रहा। पथिक भी उसकी दगंध से भागते हैं। मानव-जीवन संघर्षों के लिए है, संघर्षों के पश्चात उसे सफलता मिलती है। संघर्षों में घोर श्रम करना पड़ता है। जो व्यक्ति संघर्षों तथा श्रम से डर गया, वह मनुष्य नहीं पशु है और पश भी नहीं वह तो जड वक्ष है जहाँ पैदा हुआ है, वहीं उसे मुरझा जाना है। सोते हुए शेर के मुख में तो मृग स्वयं नहीं घसते।
उसे भी अपने भोजन के लिए परिश्रम करना पड़ता है। कहा भी है-
"उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः
नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।"
जो मनुष्य अपने जीवन में जितना अधिक परिश्रमी रहा, जितने अधिक-से-अधिक संघर्ष और कठिनाइयाँ उसने ली, अंत में उसने उतनी ही उन्नति की-
"जितने कष्ट संकटों में है जिनका जीवन सुमन खिला
गौरव-गंध उन्हें उतना ही यत्रतत्र सर्वत्र मिला।"
केवल ईश्वर की इच्छा और भाग्य के सहारे पर चलना कायरता है। मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं विधाता है। वह दूध में जितना गुड़ डालेगा, दूध उतना ही मीठा होगा। वैसे भी ईश्वर उनकी सहायता करता है जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं।
अंग्रेजी में कहावत है-God helps those who help themselves.
परिश्रम करने से मनुष्य का सबसे बड़ा लाभ है, उसे आत्मिक शांति प्राप्त होती है। उसका हृदय पवित्र हो जाता है। संकल्पों में दिव्यता आ जाती है। उसे सच्चे ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है और इन सबसे बढकर उसको व्यक्तिगत जीवन में उन्नति प्राप्त होती है। रतवर्ष की दासता और पतनव्य कारण था कि यहाँ के निवासी अकर्मण्य हो गए थे। यदि हम आज भी अकर्मण्य और आलसी बने रहे तो पुनः हम अपनी स्वतंत्रता को खो देंगे।
जीवन का वास्तविक सख और शांति मनुष्य को अपने काम से प्राप्त होती है। परिश्रम का फल जब उसके समक्ष होता है तो उसका हृदय हर्ष से उछलने लगता है। वह आत्मगौरव का अनुभव करता है। परिश्रमी को कभी भी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता। वह किसी के सामने हाथ फैलाकर गिड़गिड़ाता नहीं। उसे अपने परिश्रम पर भरोसा होता है। वह स्वयं आत्मनिर्भर होता है, दूसरों का मुख देखने वाला कभी नहीं होता।
परिश्रम से मनुष्य को यश और धन दोनों ही प्राप्त होते हैं। परिश्रम से मनुष्य धनोपार्जन भी करता है। ऐसे लोग भी देखे गए हैं जिन्होंने अपना व्यापार दस रुपए से शुरू किया और अपने परिश्रम के दम पर करोडपति बन गए। जहाँ तक यश का संबंध है. वह परिश्रमी व्यक्ति को जीवित रहते हुए ही मिलता है और मरणोपरांत भी। ऐसे व्यक्ति केपटामिनों का भावी संतान अनसरण करता है।