हमार हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
-जागत सोबत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है एसो, ज्या करुई ककरी।
म तौ व्याधि हमकों ले आए, देखी सुनी न करी।।
यह तो 'सूर' तिनहिं ले सोपो, जिनके मन चकरी।। panktiyon ka bhav spasht kijiye
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Answer:
गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! कृष्ण तो हमारे लिये हारिल पक्षी की लकड़ी की तरह हैं । जैसे हारिल पक्षी उड़ते वक्त अपने पैरों मे कोई लकड़ी या तिनका थामे रहता है और उसे विश्वास होता है कि यह लकड़ी उसे गिरने नहीं देगी , ठीक उसी प्रकार कृष्ण भी हमारे जीवन के आधार हैं । हमने मन कर्म और वचन से नन्द बाबा के पुत्र कृष्ण को अपना माना है । अब तो सोते - जागते या सपने में दिन - रात हमारा मन बस कृष्ण-कृष्ण का जाप करते रहता है । हे उद्धव ! हम कृष्ण की दीवानी गोपियों को तुम्हारा यह योग - सन्देश कड़वी ककड़ी के समान त्याज्य लग रहा है । हमें तो कृष्ण - प्रेम का रोग लग चुका है, अब हम तुम्हारे कहने पर योग का रोग नहीं लगा सकतीं क्योंकि हमने तो इसके बारे में न कभी सुना, न देखा और न कभी इसको भोगा ही है । हमारे लिये यह ज्ञान-मार्ग सर्वथा अनजान है । अत: आप ऎसे लोगों को इसका ज्ञान बाँटिए जिनका मन चंचल है अर्थात जो किसी एक के प्रति आस्थावान नहीं हैं।
Answer:
प्रस्तुत पंक्ति का भाव कुछ इस प्रकार है
Explanation:
प्रसंग:- प्रस्तुत पद पाठ्य -पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से लिया गया है।
गोपियों के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति अपार प्रेम था। श्रीकृष्ण को जब मधुरा जाना पड़ा था तब उन्होंने अपने सखा उद्धव के निर्गुण ज्ञान पर सगुण भक्ति की विजय के लिए उन्हें गोपियों के पास भेजा था।
गोपियों ने उद्धव के निर्गुण ज्ञान को सुन कर अस्वीकार कर दिया था और स्पष्ट किया था कि उन का प्रेम तो केवल श्रीकृष्ण के लिए ही था। उन का प्रेम अस्थिर नहीं था।
व्याख्या:- श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम की दृढ़ता को प्रकट करते हुए गोपियों ने उद्धव से कहा कि श्रीकृष्ण तो हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान बन गए हैं। अर्थात् जैसे हारिल पक्षी सदा अपने पंजों में लकड़ी पकड़े रहता है वैसे हम भी सदा श्रीकृष्ण का ध्यान करती रहती हैं।
हमने मन, वचन और कर्म से नंद के नंदन श्रीकृष्ण के रूप और उनकी स्मृति को अपने मन द्वारा कस कर पकड़ लिया है। अब कोई भी उसे हम से छुड़ा नहीं सकता। हमारा मन जागते, सोते, स्वप्न या प्रत्यक्ष में सदा कृष्ण-कृष्ण की रट लगाए रहता है, सदा उन्हीं का स्मरण करता रहता है। हे- उद्धव। तुम्हारी योग की बातें सुनते ही हमें ऐसा लगता है मानों कडवी ककड़ी खा ली हो।
अर्थात् तुम्हारी योग की बातें हमें बिल्कुल अरुचिकर लगती हैं। तुम तो हमारे लिए योग रूपी ऐसी बीमारी ले कर आए हो जिसे हमने न तो कभी देखा, न सुना और न कभी भुगता ही है। हम तो तुम्हारी योग रूपी बीमारी से पूरी तरह अपरिचित हैं। तुम इस बीमारी को उन लोगों को जाकर दे दो जिन के मन सदा चकई के समान चंचल रहते हैं। भाव है कि हमारा मन तो श्रीकृष्ण के प्रेम में दृढ़ और स्थिर है। जिनका मन चंचल है वही योग की बातें स्वीकार कर सकते हैं।