हमारे हरि हारिल की लकरी । मन क्रम बचन नन्द-नन्दन उर ,यह दृढ़ करि पकरी । जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि,कान्ह-कान्ह जकरी । सुनत जोग लागत है ऐसो, ज्यों करुई ककरी । सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए ,देखि सुनी न करी । यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपो ,जिनके मन चकरी । कवि हैं
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सूरदास जी
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हमारैं - हमारे, हरि श्रीकृष्ण, हारिल = हारिल एक पक्षी है जो अपने पैरों में सदैव एक लकड़ी लिए रहता है, उसे छोड़ता नहीं है, लकड़ी = लकड़ी, क्रम = कर्म, बचन = वचन, नंद-नंदन = नंद बाबा का पुत्र अर्थात श्रीकृष्ण, उर = हृदय, पकरी =पकड़ कर रखता है, जागत = जागते हुए, सोवत = सोते हुए, स्वप्न = सपना, दिवस = दिन, निसि-रात, कान्हा = श्रीकृष्ण, जक री-रटती रहती हैं, तो = वह, लागत = लगता, ऐसौ - ऐसा, करुई- कड़वी, व्याधि व्याधि, रोग, हमकौं हमारे लिए, लै - लेकर, न करी न अपनाई गई, तौ - तो, सूर = सूरदास, तिनहिं = उनको, सौंप = सौंप दो, मन चकरी जिनका मन स्थिर नहीं हो, जो समर्पित नहीं हो।
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