Hindi, asked by anviyadav077, 2 months ago

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Answered by TheDeadlyWasp
21

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आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864–1938) हिन्दी के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक थे।

उन्होने हिंदी साहित्य की अविस्मरणीय सेवा की और अपने युग की साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना को दिशा और दृष्टि प्रदान की। उनके इस अतुलनीय योगदान के कारण आधुनिक हिंदी साहित्य का दूसरा युग 'द्विवेदी युग' (1900–1920) के नाम से जाना जाता है।

उन्होने सत्रह वर्ष तक हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका सरस्वती का सम्पादन किया। हिन्दी नवजागरण में उनकी महान भूमिका रही।

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को गति व दिशा देने में भी उनका उल्लेखनीय योगदान रहा।

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Answered by Anonymous
248

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☯︎ मेरी जीवन रेखा निबंध का सारांश-

✈︎महावीर प्रसाद द्विवेदी की आत्म-कथात्मक इस निबंध में उनके जीवन-संघर्ष और साधना का परिचय मिलता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि यदि दृढ़-संकल्प, आत्म-विश्वास और निरंतर कठिन परिश्रम की क्षमता हो तो जीवन में उन्नति को कोई नहीं रोक सकता।

✈︎लेखक को उनके मित्रों और हितैषियों ने अनेक पत्र लिखे। वे लेखक के मुख से उनकी जीवन कथा सुनना चाहते थे। लेखक ने उनकी भावनाओं का आदर करते हुए अपने जीवन के संबंध में कुछ बातें सूत्र-रूप में दी हैं।

लेखक के पिता देहाती थी। उनका वेतन दस रुपए मासिक था। लेखक ने देहाती स्कूल में उर्दू पढ़ी थी। तेरह वर्ष की आयु में वह रायबरेली के जिला स्कूल में अंग्रेजी पढ़ने चले गए थे। पारिवारिक कारणों से उन्हें स्कूली शिक्षा से आगे पढ़ने का अवसर नहीं मिला।

✈︎इसके पश्चात् लेखक ने अजमेर में पन्द्रह रुपए मासिक पर नौकरी कर ली। बचपन से ही लेखक की रुचि सुशिक्षित लोगों की संगति करने की ओर थी। इसके फलस्वरूप उन्होंने अपने लिए चार आदर्श निश्चित किए-समय की पाबन्दी, रिश्वत न लेना, ईमानदारी से अपना काम करना और ज्ञान वृद्धि के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहना।

सतत् अभ्यास से उन्होंने रेल की पटरियाँ बिछाने और उसकी सड़क की निगरानी का कार्य भी सीख लिया। अपने कार्य के कारण उन्हें उन्नति के लिए कभी भी प्रार्थना-पत्र नहीं देना पड़ा। उनकी उन्नति का प्रधान कारण उनकी ज्ञान लिप्सा थी। इससे उनकी मासिक आय उनकी योग्यता से कई गुणा हो गई।

✈︎कुछ समय के बाद उनके अधिकारी ने उनके द्वारा औरों पर अत्याचार करना चाहा। अधिकारी के आदेश पर उन्होंने स्वयं तो आठ बजे दफ्तर में आना स्वीकार कर लिया, पर दूसरों को प्रतिदिन प्रातः आठ बजे आने का आदेश देने से इनकार कर दिया। बात बढ़ने पर उन्होंने नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया। उनकी पत्नी ने भी लेखक के निर्णय का समर्थन किया और आठ आने रोज तक की आमदनी से घर का खर्च चलाने का भरोसा दिलाया।

महावीर प्रसाद द्विवेदी को ‘सरस्वती’ के सम्पादन कार्य से 20 रुपए मासिक वेतन और तीन रुपए डाक खर्च के लिए मिलते थे। उन्होंने उसी से ही सन्तुष्ट रहने का निश्चय किया।

✈︎लेखक के पिता ईस्ट इंडिया कम्पनी की एक पलटन में सिपाही थे। वे मामूली पढ़े-लिखे और बड़े भक्त थे। गदर में उनकी पलटन ने भी विद्रोह कर दिया था। उनके पिता ने पलटन से भागकर सतलुज में छलांग लगा दी थी। वे जैसे-तैसे बच गए थे और मांगते-खाते कई महीने बाद साधु वेश में घर आए थे।

✈︎लेखक के दादा संस्कृतज्ञ थे और पलटनों को पुराण सुनाया करते थे। उनकी दादी ने उनके द्वारा इकट्ठी की हुई सैकड़ों हस्तलिखित पुस्तकों को बेचकर उनके पिता और चाचा का पालन-पोषण किया। उनके पितृव्य दुर्गाप्रसाद में नए-नए किस्से बनाकर कहने की अद्भुत शक्ति थी। उनके नाना और मामा भी संस्कृतज्ञ थे।

✈︎बचपन से ही लेखक का अनुराग तुलसी, रामायण और ब्रजवासी दास के ब्रजविलास पर हो गया था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के ‘कवि वचन सुधा’ और गोस्वामी राधाचरण के एक मासिक पत्र से उनका यह अनुराग और भी बढ़ गया था। उनका यह अनुराग बहुत समय तक ज्यों-का-त्यों बना रहा। उन्होंने संस्कृत और अंग्रेजी की पुस्तकों के कुछ अनुवाद भी किए।

✈︎एक अध्यापक के अनुरोध पर उन्होंने कोर्स की एक पुस्तक की समालोचना पुस्तकार में प्रकाशित की। इस समालोचना के फलस्वरूप ‘इंडियन प्रेस’ ने ‘सरस्वती’ पत्रिका का सम्पादन कार्य उन्हें देने की इच्छा प्रकट की। इसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।

✈︎नौकरी छोड़ने पर उनके मित्रों ने उनकी सहायता करने की इच्छा प्रकट की पर उन्होंने किसी की भी सहायता स्वीकार नहीं की। उन्होंने अपने अंगीकृत कार्य में सारी शक्ति लगा देने का निश्चय किया। इस कार्य से उन्हें जो थोड़ा-बहुत अवकाश मिलता था, उसमें वे अनुवाद आदि का काम करते थे।

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☯︎ महावीर प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय-

✈︎हिंदी गद्य साहित्य के युगविधायक महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म 5 मई सन 1864 ई0 में रायबरेली जिले के दौलतपुर गांव में हुआ था. कहा जाता है कि इनके पिता रामसहाय द्विवेदी को महावीर का ईस्ट था, इसलिए इन्होंने पुत्र का नाम महावीर सहाय रखा. इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई. पाठशाला के प्रधानाध्यापक ने भूलवश इनका नाम महावीर प्रसाद लिख दिया था. यह भूल हिंदी साहित्य में स्थाई बन गई. 13 वर्ष की अवस्था में अंग्रेजी पढ़ने के लिए उन्होंने रायबरेली के जिला स्कूल में प्रवेश लिया.

✈︎यहां संस्कृत के अभाव में इनको वैकल्पिक विषय फारसी लेना पड़ा. यहां 1 वर्ष व्यतीत करने के बाद कुछ दिनों तक उन्नाव जिले के रंजीत पुरवा स्कूल में और कुछ दिनों तक फतेहपुर में पढ़ने के पश्चात ही एक पिता के पास मुंबई चले गए. वहां उन्होंने संस्कृत, गुजराती मराठी और अंग्रेजी का अभ्यास किया. उनकी उत्कृष्ट ज्ञान पिपासा कभी तृप्त ना हुई, किंतु जीविका के लिए उन्होंने रेलवे में नौकरी कर ली. रेलवे में विभिन्न पदों पर कार्य करने के बाद झांसी में डिस्ट्रिक्ट ट्राफिक सुप्रीमडेंट के कार्यालय में मुख्य लिपिक हो गए.

✈︎5 वर्ष बाद उच्च अधिकारियों से खिन्न होकर इन्होंने नौकरी त्यागपत्र दे दिया. हिंदी साहित्य साधना का क्रम सरकारी नौकरी के नीरस वातावरण में भी चल रहा था और इस अवधि में इनके संस्कृत ग्रंथों के कई अनुवाद और कुछ आलोचनाएं प्रकाश में आ चुकी थी. सन 1930 ई0 में द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका का संपादन स्वीकार किया. 1920 ई0 तक यह दायित्व इन्होंने निष्ठा पूर्वक निभाया. सरस्वती से अलग होने पर उनके जीवन में अंतिम 18 वर्ष के नीरस वातावरण में बड़ी कठिनाई से व्यतीत हुए. 21 दिसंबर सन 1938 ई0 को रायबरेली में हिंदी के इस महान साहित्यकार का स्वर्गवास हो गया.

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