Holi ke aas pas prakriti me jo parivartan dikhaai dete hai us pr ek pariyojnaa
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होली का पर्व यथार्थ में ऋतु परिवर्तन से जुड़ा हुआ है। इसकी सम्पूर्ण भारत के मंगल उत्सव के रूप में ख्याति है। इसको यदि भारतीय पर्व परम्परा में आनंदोत्सव का सर्वोपरि पर्व कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। देखा जाये तो शिशिर और हेमंत काल की शरीर को अंदर तक कंपकपा और ठिठुरा देने वाली जकड़न के बाद वसंत के आगमन की सूचना देता फाल्गुन मास वातावरण में एक अजीब सा मौजमस्ती, हर्षोल्लास का रंग घोलने लगता है। वसंत ऋतु का यह काल असलियत में जीवन की नीरसता दूर कर उसमें मधुरता के संचरण का काल माना जाता है। इस मास में जब प्रकृति भिन्न-भिन्न प्रकार की कुसुम-समृद्धि से नयी-नवेली दुल्हन की तरह सजने लगती है, पवन मत्त-मयूर सा वृक्षों की डालियों के साथ अठखेलियाँ करने लगता है और अपने स्पर्श से जन-मन को पुलकित-प्रफुल्लित करने लगता है और यही नहीं शस्यश्री से झूमते हुए सम्पूर्ण क्षेत्र हर्ष और उल्लास के मनमोहक वातावरण की सृष्टि करने को तत्पर रहते हैं, उसे क्रियान्वित करने लगते हैं, ऐसे मनोहारी वातावरण में मनुष्य अपने को कैसे दूर रख सकता है। उस स्थिति में जबकि हास्य जीवन का अति सहज मनोभाव है। इसके स्वतः दर्शन होते हैं।
कोई भी दार्शनिक या प्रबुद्ध विचारक भी इसकी उपेक्षा करने का साहस नहीं कर सकता। इसमें भी दोराय नहीं कि वैदिक काल में भी समय-समय पर किये जाने वाले यज्ञ, उपनयन संस्कार और किसी देवता को निमित्त मानकर किये जाने वाले शक्रमह, नागमह, गिरिमह व चैत्यमह जैसे आयोजन, यात्रा पर्व इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि हमारे यहाँ धर्म के साथ-साथ अन्य निमित्तों और प्रसंगों के माध्यम से भी उत्सवों के आयोजन किये जाते रहे हैं। ऐसे अवसरों पर लोग हास्य-परिहास, व्यंग-विनोद की भावना से ओत-प्रोत हो तन्मय होकर पूरा रस लेते थे। भविष्येत्तर पुराण में उल्लेख है कि होली को रंग उत्सव के रूप में मनायें अबीर, गुलाल और चंदन को एक-दूसरे को लगायें। हाथों में पिचकारियाँ लेकर एक-दूसरे के घर जायें, रंग डालें और हास्य-विनोद में जुट जायें।
गौरतलब है कि लगभग आधी सदी पूर्व तक होली कुदरत के रंगों यानी टेसू, केसर, मजीठ आदि के रंगों से खेली जाती थी। लेकिन बाजारीकरण कहें या भूमंडलीकरण के दौर में आज कुदरत के रंग न जाने कहाँ खो गये हैं और हम अपनी संस्कृति और सभ्यता को लगभग भुला ही बैठे हैं। अब तो इनके रंगों से होली खेलने वालों की तादाद नगण्य सी है जबकि राहु-केतु के प्रतीक पेंट, वार्निश व काले रंग जो राग-द्वेष बढ़ाते हैं, का प्रयोग संपन्नता का परिचायक माना जाता है। यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि हमारे यहाँ टेसू के वृक्ष का जिक्र ग्रंथों में मिलता है। इसको कहीं पलाश, त्रिशंकु और ढाक के नाम से जाना जाता है। इसे वन की ज्वाला यानी ‘फलेम आॅफ दि फाॅरेस्ट’ भी कहते हैं। अपने गठीले आकार और नारंगी लाल रंग के फूलों के कारण यह सर्वत्र जाना जाता है। यह पूरे भारत में पाया जाता है। इसके फूलों के रंग का प्रयोग होली पर प्राचीन काल से होता आया है। पहले इसे तोड़कर सुखा लिया जाता है और फिर रात में पानी में भिगो दिया जाता है। सुबह फाग वाले दिन इसका इस्तेमाल किया जाता है। केसर का रंग केसर के पौधे से प्राप्त होता है। यह सबसे महँगा है। कहा जाता है कि एक पौंड केसर में ढाई से पाँच लाख सूखे वर्तिकाग्र पाये जाते हैं जिनको इकट्ठा करने के लिये कम से कम 71 हजार के लगभग फूलों कों तोड़ना पड़ता है।
सच तो यह है कि होली प्राकृतिक रंगों से ही खेलनी चाहिये। शरीर को नुकसान भी न हो और होली के रंग में तन-मन दोनों रंग जायें, इसके लिये जरूरी है कि होली खेलने के लिये परम्परागत तरीका ही अपनाया जाय। इस मानसिकता से जहाँ आपके अपनों पर प्रेम का रंग गहरा चढ़ेगा, वहीं होली के पर्व का आनंद आप नई उमंग और उल्लास के साथ उठा सकेंगे। इसमें दोराय नहीं।
रत्नाकर कवि ने अपनी कविताओं में टेसू के साथ मजीठ के रंग का भी वर्णन किया है। मजीठ के पौधे की जड़ से सिंदूरी रंग प्राप्त होता है। इस रंग का इस्तेमाल कपड़ों की रंगाई में भी किया जाता है। पहाड़ी इलाकों में जैसे कुमायूँ में इसे मजेठी व कश्मीर में इसे टिंजाड़ू भी कहा जाता है। इसके सिंदूरी रंग का इस्तेमाल होली के दिन किया जाता है। इसी तरह एक और पेड़ नील का है जिसका इस्तेमाल पहले होली के रंग के रूप में भी किया जाता था। लेकिन बाद में इसका इस्तेमाल रंगाई के काम में भी किया जाने लगा। इनके अलावा हमारे यहाँ डेढ़ सौ से भी ज्यादा ऐसे पेड़-पौधे हैं, जो हमें प्राकृतिक रंगों का उपहार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहते हैं। गेंदा, गुलाब, आदि ऐसे फूल हैं जिनके बने रंग स्वास्थ्य के लिये तो कदापि अहितकर नहीं हैं। बस जरूरत है इन्हें 24 घंटे पानी में भिगोने और उसके बाद उसे मसलकर कपड़े से छान लेने की। एक बाल्टी पानी में एक-डेढ़ किलो फूलों की मात्रा ही काफी है। यही नहीं चुकंदर को पानी में डालकर गहरा भूरा रंग भी बनाया जा सकता है।
सच तो यह है कि प्राकृतिक रंगों से होली खेलना सबसे ज्यादा सुरक्षित होता है। इन रंगों से होली खेलने से अनेकों बीमारियों से बचा जा सकता है। क्योंकि ये रंग न तो शरीर के लिये हानिकारक होते हैं और न ही इनके उपयोग के बाद रगड़-रगड़ कर रंगों को छुड़ाने की कसरत ही करनी पड़ती है। इससे खाल खिंच जाती है और रंग में भंग के कारण बनते हैं ये विषैले रसायनयुक्त रंग सो अलग। दरअसल अक्सर बाजार में जो गुलाल मिलता है उसमें अभ्रक और रेत आदि मिला होता है। रंगों को और गहरा व चटख बनाने की खातिर उनमें मिलाये गये रसायन त्वचा पर दुष्प्रभाव डाले बिना नहीं रहते। कभी-कभी तो इनके आँख पर पड़ जाने से आँखों की रोशनी तक चली जाती है।
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कोई भी दार्शनिक या प्रबुद्ध विचारक भी इसकी उपेक्षा करने का साहस नहीं कर सकता। इसमें भी दोराय नहीं कि वैदिक काल में भी समय-समय पर किये जाने वाले यज्ञ, उपनयन संस्कार और किसी देवता को निमित्त मानकर किये जाने वाले शक्रमह, नागमह, गिरिमह व चैत्यमह जैसे आयोजन, यात्रा पर्व इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि हमारे यहाँ धर्म के साथ-साथ अन्य निमित्तों और प्रसंगों के माध्यम से भी उत्सवों के आयोजन किये जाते रहे हैं। ऐसे अवसरों पर लोग हास्य-परिहास, व्यंग-विनोद की भावना से ओत-प्रोत हो तन्मय होकर पूरा रस लेते थे। भविष्येत्तर पुराण में उल्लेख है कि होली को रंग उत्सव के रूप में मनायें अबीर, गुलाल और चंदन को एक-दूसरे को लगायें। हाथों में पिचकारियाँ लेकर एक-दूसरे के घर जायें, रंग डालें और हास्य-विनोद में जुट जायें।
गौरतलब है कि लगभग आधी सदी पूर्व तक होली कुदरत के रंगों यानी टेसू, केसर, मजीठ आदि के रंगों से खेली जाती थी। लेकिन बाजारीकरण कहें या भूमंडलीकरण के दौर में आज कुदरत के रंग न जाने कहाँ खो गये हैं और हम अपनी संस्कृति और सभ्यता को लगभग भुला ही बैठे हैं। अब तो इनके रंगों से होली खेलने वालों की तादाद नगण्य सी है जबकि राहु-केतु के प्रतीक पेंट, वार्निश व काले रंग जो राग-द्वेष बढ़ाते हैं, का प्रयोग संपन्नता का परिचायक माना जाता है। यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि हमारे यहाँ टेसू के वृक्ष का जिक्र ग्रंथों में मिलता है। इसको कहीं पलाश, त्रिशंकु और ढाक के नाम से जाना जाता है। इसे वन की ज्वाला यानी ‘फलेम आॅफ दि फाॅरेस्ट’ भी कहते हैं। अपने गठीले आकार और नारंगी लाल रंग के फूलों के कारण यह सर्वत्र जाना जाता है। यह पूरे भारत में पाया जाता है। इसके फूलों के रंग का प्रयोग होली पर प्राचीन काल से होता आया है। पहले इसे तोड़कर सुखा लिया जाता है और फिर रात में पानी में भिगो दिया जाता है। सुबह फाग वाले दिन इसका इस्तेमाल किया जाता है। केसर का रंग केसर के पौधे से प्राप्त होता है। यह सबसे महँगा है। कहा जाता है कि एक पौंड केसर में ढाई से पाँच लाख सूखे वर्तिकाग्र पाये जाते हैं जिनको इकट्ठा करने के लिये कम से कम 71 हजार के लगभग फूलों कों तोड़ना पड़ता है।
सच तो यह है कि होली प्राकृतिक रंगों से ही खेलनी चाहिये। शरीर को नुकसान भी न हो और होली के रंग में तन-मन दोनों रंग जायें, इसके लिये जरूरी है कि होली खेलने के लिये परम्परागत तरीका ही अपनाया जाय। इस मानसिकता से जहाँ आपके अपनों पर प्रेम का रंग गहरा चढ़ेगा, वहीं होली के पर्व का आनंद आप नई उमंग और उल्लास के साथ उठा सकेंगे। इसमें दोराय नहीं।
रत्नाकर कवि ने अपनी कविताओं में टेसू के साथ मजीठ के रंग का भी वर्णन किया है। मजीठ के पौधे की जड़ से सिंदूरी रंग प्राप्त होता है। इस रंग का इस्तेमाल कपड़ों की रंगाई में भी किया जाता है। पहाड़ी इलाकों में जैसे कुमायूँ में इसे मजेठी व कश्मीर में इसे टिंजाड़ू भी कहा जाता है। इसके सिंदूरी रंग का इस्तेमाल होली के दिन किया जाता है। इसी तरह एक और पेड़ नील का है जिसका इस्तेमाल पहले होली के रंग के रूप में भी किया जाता था। लेकिन बाद में इसका इस्तेमाल रंगाई के काम में भी किया जाने लगा। इनके अलावा हमारे यहाँ डेढ़ सौ से भी ज्यादा ऐसे पेड़-पौधे हैं, जो हमें प्राकृतिक रंगों का उपहार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहते हैं। गेंदा, गुलाब, आदि ऐसे फूल हैं जिनके बने रंग स्वास्थ्य के लिये तो कदापि अहितकर नहीं हैं। बस जरूरत है इन्हें 24 घंटे पानी में भिगोने और उसके बाद उसे मसलकर कपड़े से छान लेने की। एक बाल्टी पानी में एक-डेढ़ किलो फूलों की मात्रा ही काफी है। यही नहीं चुकंदर को पानी में डालकर गहरा भूरा रंग भी बनाया जा सकता है।
सच तो यह है कि प्राकृतिक रंगों से होली खेलना सबसे ज्यादा सुरक्षित होता है। इन रंगों से होली खेलने से अनेकों बीमारियों से बचा जा सकता है। क्योंकि ये रंग न तो शरीर के लिये हानिकारक होते हैं और न ही इनके उपयोग के बाद रगड़-रगड़ कर रंगों को छुड़ाने की कसरत ही करनी पड़ती है। इससे खाल खिंच जाती है और रंग में भंग के कारण बनते हैं ये विषैले रसायनयुक्त रंग सो अलग। दरअसल अक्सर बाजार में जो गुलाल मिलता है उसमें अभ्रक और रेत आदि मिला होता है। रंगों को और गहरा व चटख बनाने की खातिर उनमें मिलाये गये रसायन त्वचा पर दुष्प्रभाव डाले बिना नहीं रहते। कभी-कभी तो इनके आँख पर पड़ जाने से आँखों की रोशनी तक चली जाती है।
अ
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Explanation:
होली होली के आसपास जो प्रकृति में परिवर्तन दिखाई देता है वह इस प्रकार होती है कि होली फागुन के महीने में होती है जब वसंत ऋतु पड़ती है सर्दी समाप्त होती है और सूर्य की तपन कम हो जाती है हरियाली होने लगती है घास पर सुबह-सुबह दिखाई देने वाली ओस की बूंदे गायब हो जाती है प्रकृति की शोभा होली के आसपास नया स्वरूप प्राप्त कर लेती है
धन्यवाद कृपया कर मुझे ब्रेड लिस्ट बनाएं और बहुत सारे धन्यवाद दें और मुझे फॉलो करें आप मुझे फॉलो करेंगे मैं आपको फॉलो बैक करूंगी आपके लिए आज आपकी आज्ञाकारी एस
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