Hum Samaj ka Adhyan kaise kar sakte hain
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व्यावहारिक रुप से समाज शब्द का प्रयोग मानव समूह के लिए किया जाता है । किन्तु वास्तविक रुप से समाज मानव समूह के अन्तर्गत व्यक्तियों के सम्बंधों की व्यवस्था का नाम है । समाज स्वयं एक संघ है संगठन है, औपचारिक सम्बंधों का योग है ।
समाज के प्रमुख स्तम्भ स्त्री और पुरुष हैं । स्त्री और पुरुष का प्रथम सम्बंध पति और पत्नी का है, इनके आपसी संसर्ग से सन्तानोत्पत्ति होती है और परिवार बनता है । परिवार में सदस्यों की वृद्धि होती जाती है और आपसी सम्बंधों का एक लम्बा सिलसिला जारी होता है । मानव बुद्धिजीवी है इसलिए इसे सामाजिक प्राणी कहा गया है । मानवेतर प्राइज़ में इन सम्बंधों के मर्यादा के निर्वाह की वैसी बुद्धि नहीं है जैसी मानव में होती है । परिवार सामाजिक जीवन की सबसे छोटी और महत्वपूर्ण इकाई है ।
प्राचीन ऐतिहासिक अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रारंभिक युग का जीवन संयुक्त पारिवारिक प्रणाली पर आधारित था । गॉंव या शहर में कई पैतृक कुटुम्ब बसे रहते थे और उन पैतृक कुटुम्बों के स्वामी ही गॉंव के बड़े एवं मुखिया होते थे । कुटुम्ब का संगठन अनुशासन एवं मर्यादायुक्त होता था । परिवार का मुखिया उसका वयोवृद्ध व्यक्ति हुआ करता था । वही धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक मामलों में परिवार का नेतृत्व करता था । मध्य काल तक लगभग परिवार की यही व्यवस्था चलती रही । किन्तु योरोपीय सभ्यता ने जब हमारी संस्कृति पर प्रभाव डाला तो संयुक्त परिवार प्रणाली में बिखराव आने लगा । जहॉं परिवार में कई कई पीढि़यों तक संयुक्त रहने का एक नियम सा बन गया था, वहॉं पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से परिवार पति-पत्नी तथा अविवाहित बच्चों तक ही सीमित रह गया । वर्तमान युग आते-आते संयुक्त परिवारों की संख्या कम होती गई तथा अब यह प्रणाली समाप्त प्राय ही दृष्टिगत होती है । इस विघटन का मुख्य कारण व्यक्तिवादी विचारधारा का बाहुल्य है । आज का पारिवारिक जीवन भौतिक जीवन की सुख-समृद्धि जुटाने तक ही सीमित रह गया है । जिन आघ्यात्मिक मूल्यों पर यह व्यवस्था आधारित थी उन मूल्यों को हम भूलते जा रहे हैं ।
आदिकाल से ही हमारा समाज पितृ-प्रधान रहा है । यही कारण है कि पैतृक सम्पत्ति के संरक्षण, वंश विस्तार तथा पिता के मरणोपरान्त उसे ऋण से उऋण होने हेतु पुत्र का होना आवश्यक समझा जाने लगा तथा सन्तान का होना भी अत्यावश्यक समझा जाने लगा । यह सामाजिक व्यवस्था एवं मनोवृत्ति आज भी भारतीय जनमानस में विद्यमान है । हॉं वर्तमान में यह अवश्य हुआ है कि बढ़ती हुई जनसंख्या के नियंत्रण हेतु सरकारी कानूनों एवं प्रोजेक्ट के परिणास्वरुप नियोजित परिवार की धारणा बनी है, किन्तु पुत्रहीन होना आज भी किसी को पसंद नहीं है ।
भारतीय संस्कृति में नारी का परम्परागत आदर्श है “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”। भारतीय संस्कृति इसके जननी, भगिनी, पत्नी तथा पुत्री के पवित्र रुपों को अंगीकार करती है । जिसमें ममता, करुणा, क्षमा, दया, कुलमर्यादा का आचरण तथा परिवार एवं स्वजनों के निमित्त बलिदान की भावना हो, वह भारतीय नारी का आदर्श रुप है । नारी का मातृरुप महत्वपूर्ण आदर्श है- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी । किन्तु भारतीय संस्कृति की विचारधारा में नारी पतिव्रत-धर्म मातृ रुप से भी अधिक महत्वपूर्ण माना गया है ।
प्रकृति ने नर और नारी में भिन्नता प्रदान की है और यही कारण है कि उनके कर्म भी अलग-अलग हैं । किन्तु ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । मनुष्य कठोर परिश्रम करके जीवन-संग्राम में प्रकृति पर यथाशक्ति अधिकारी करके एक शासन चाहता है, जो उसके जीवन का परम लक्ष्य है और कठोर परिश्रम के पश्चात् विश्राम की आवश्यकता होती है तो शीतल विश्राम है स्नेह, सेवा और करुणा की मूर्ति रुपी नारी । नारी के अनेक रुपों में पर का पत्नी रुप से अति निकट का सम्बन्ध है । नर-नारी सम्बन्धों का सुन्दर रुप दाम्पत्य जीवन है । क्योंकि पति-पत्नी एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने पर ही प्रजा का सृजन कर सकते हैं और परिवार को सुचारु रुप से चला सकते हैं । आधुनिक युग में भी शिक्षित, जागरुक, चरित्रवान आदर्श सुपत्नी ही आदर्श भारतीय नारी है ।
ऊपर यह स्पष्ट किया गया है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं किन्तु आज भी हमारा समाज पितृ-प्रधान ही है । देश के विभिन्न समुदायों तथा वर्गों में स्त्री की सामाजिक स्थिति पुरुष की अपेक्षा निम्न मानी जाती है । यहॉं अभी भी ऐसे रीति-रिवाज, अंधविश्वास और धर्म विधियॉं या कर्म-काण्ड हैं जो स्त्री को नीचा दिखाते हैं और पुरुष को स्त्री से उच्च व बहुत अधिक वांछित साबित करते हैं – जैसे पिता के मरणोपरान्त अंतिम धार्मिक कृत्य बेटा ही करेगा और बेटे के ही करने से पिता स्वर्ग का भागी होगा । हमारे समाज ऐसे रीति-रिवाज तथा प्रवृत्तियॉं प्रचलित हैं, जिसके कारण आज भी स्त्रियों को वह स्थान प्राप्त नहीं है जो वास्तव में होना चाहिए । जैसे- दहेज-प्रथा या लड़की का पराया धन समझना और शादी के बाद माता-पिता का कोई हक न समझना तथा शादी-शुदा स्त्री को जब तक पुत्र न पैदा हो तब तक उसे परिवार में महत्वपूर्ण स्थान न देना आदि । इन्हीं सामाजिक प्रवृत्तियों और दहेज जैसे रिवाजों के परिणामस्वरुप बेटियॉं चेतन व अचेतन रुप में एक बोझ सी मानी जाती हैं, जबकि बेटे एक पूंजी के समान समझे जाते हैं । यद्यपि आजादी के बाद हुए आर्थिक सामाजिक परिवर्तनों तथा अर्न्राष्ट्रीय महिला वर्ष के अन्तर्गत महिलाओं की िस्थति को सुधारने के लिए बनी योजनाओं के माध्यम से महिलाओं की सामाजिक स्थिति में काफी परिवर्तन आया है ।
hope it helps you friend.
@ sk
समाज के प्रमुख स्तम्भ स्त्री और पुरुष हैं । स्त्री और पुरुष का प्रथम सम्बंध पति और पत्नी का है, इनके आपसी संसर्ग से सन्तानोत्पत्ति होती है और परिवार बनता है । परिवार में सदस्यों की वृद्धि होती जाती है और आपसी सम्बंधों का एक लम्बा सिलसिला जारी होता है । मानव बुद्धिजीवी है इसलिए इसे सामाजिक प्राणी कहा गया है । मानवेतर प्राइज़ में इन सम्बंधों के मर्यादा के निर्वाह की वैसी बुद्धि नहीं है जैसी मानव में होती है । परिवार सामाजिक जीवन की सबसे छोटी और महत्वपूर्ण इकाई है ।
प्राचीन ऐतिहासिक अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रारंभिक युग का जीवन संयुक्त पारिवारिक प्रणाली पर आधारित था । गॉंव या शहर में कई पैतृक कुटुम्ब बसे रहते थे और उन पैतृक कुटुम्बों के स्वामी ही गॉंव के बड़े एवं मुखिया होते थे । कुटुम्ब का संगठन अनुशासन एवं मर्यादायुक्त होता था । परिवार का मुखिया उसका वयोवृद्ध व्यक्ति हुआ करता था । वही धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक मामलों में परिवार का नेतृत्व करता था । मध्य काल तक लगभग परिवार की यही व्यवस्था चलती रही । किन्तु योरोपीय सभ्यता ने जब हमारी संस्कृति पर प्रभाव डाला तो संयुक्त परिवार प्रणाली में बिखराव आने लगा । जहॉं परिवार में कई कई पीढि़यों तक संयुक्त रहने का एक नियम सा बन गया था, वहॉं पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से परिवार पति-पत्नी तथा अविवाहित बच्चों तक ही सीमित रह गया । वर्तमान युग आते-आते संयुक्त परिवारों की संख्या कम होती गई तथा अब यह प्रणाली समाप्त प्राय ही दृष्टिगत होती है । इस विघटन का मुख्य कारण व्यक्तिवादी विचारधारा का बाहुल्य है । आज का पारिवारिक जीवन भौतिक जीवन की सुख-समृद्धि जुटाने तक ही सीमित रह गया है । जिन आघ्यात्मिक मूल्यों पर यह व्यवस्था आधारित थी उन मूल्यों को हम भूलते जा रहे हैं ।
आदिकाल से ही हमारा समाज पितृ-प्रधान रहा है । यही कारण है कि पैतृक सम्पत्ति के संरक्षण, वंश विस्तार तथा पिता के मरणोपरान्त उसे ऋण से उऋण होने हेतु पुत्र का होना आवश्यक समझा जाने लगा तथा सन्तान का होना भी अत्यावश्यक समझा जाने लगा । यह सामाजिक व्यवस्था एवं मनोवृत्ति आज भी भारतीय जनमानस में विद्यमान है । हॉं वर्तमान में यह अवश्य हुआ है कि बढ़ती हुई जनसंख्या के नियंत्रण हेतु सरकारी कानूनों एवं प्रोजेक्ट के परिणास्वरुप नियोजित परिवार की धारणा बनी है, किन्तु पुत्रहीन होना आज भी किसी को पसंद नहीं है ।
भारतीय संस्कृति में नारी का परम्परागत आदर्श है “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”। भारतीय संस्कृति इसके जननी, भगिनी, पत्नी तथा पुत्री के पवित्र रुपों को अंगीकार करती है । जिसमें ममता, करुणा, क्षमा, दया, कुलमर्यादा का आचरण तथा परिवार एवं स्वजनों के निमित्त बलिदान की भावना हो, वह भारतीय नारी का आदर्श रुप है । नारी का मातृरुप महत्वपूर्ण आदर्श है- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी । किन्तु भारतीय संस्कृति की विचारधारा में नारी पतिव्रत-धर्म मातृ रुप से भी अधिक महत्वपूर्ण माना गया है ।
प्रकृति ने नर और नारी में भिन्नता प्रदान की है और यही कारण है कि उनके कर्म भी अलग-अलग हैं । किन्तु ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । मनुष्य कठोर परिश्रम करके जीवन-संग्राम में प्रकृति पर यथाशक्ति अधिकारी करके एक शासन चाहता है, जो उसके जीवन का परम लक्ष्य है और कठोर परिश्रम के पश्चात् विश्राम की आवश्यकता होती है तो शीतल विश्राम है स्नेह, सेवा और करुणा की मूर्ति रुपी नारी । नारी के अनेक रुपों में पर का पत्नी रुप से अति निकट का सम्बन्ध है । नर-नारी सम्बन्धों का सुन्दर रुप दाम्पत्य जीवन है । क्योंकि पति-पत्नी एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने पर ही प्रजा का सृजन कर सकते हैं और परिवार को सुचारु रुप से चला सकते हैं । आधुनिक युग में भी शिक्षित, जागरुक, चरित्रवान आदर्श सुपत्नी ही आदर्श भारतीय नारी है ।
ऊपर यह स्पष्ट किया गया है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं किन्तु आज भी हमारा समाज पितृ-प्रधान ही है । देश के विभिन्न समुदायों तथा वर्गों में स्त्री की सामाजिक स्थिति पुरुष की अपेक्षा निम्न मानी जाती है । यहॉं अभी भी ऐसे रीति-रिवाज, अंधविश्वास और धर्म विधियॉं या कर्म-काण्ड हैं जो स्त्री को नीचा दिखाते हैं और पुरुष को स्त्री से उच्च व बहुत अधिक वांछित साबित करते हैं – जैसे पिता के मरणोपरान्त अंतिम धार्मिक कृत्य बेटा ही करेगा और बेटे के ही करने से पिता स्वर्ग का भागी होगा । हमारे समाज ऐसे रीति-रिवाज तथा प्रवृत्तियॉं प्रचलित हैं, जिसके कारण आज भी स्त्रियों को वह स्थान प्राप्त नहीं है जो वास्तव में होना चाहिए । जैसे- दहेज-प्रथा या लड़की का पराया धन समझना और शादी के बाद माता-पिता का कोई हक न समझना तथा शादी-शुदा स्त्री को जब तक पुत्र न पैदा हो तब तक उसे परिवार में महत्वपूर्ण स्थान न देना आदि । इन्हीं सामाजिक प्रवृत्तियों और दहेज जैसे रिवाजों के परिणामस्वरुप बेटियॉं चेतन व अचेतन रुप में एक बोझ सी मानी जाती हैं, जबकि बेटे एक पूंजी के समान समझे जाते हैं । यद्यपि आजादी के बाद हुए आर्थिक सामाजिक परिवर्तनों तथा अर्न्राष्ट्रीय महिला वर्ष के अन्तर्गत महिलाओं की िस्थति को सुधारने के लिए बनी योजनाओं के माध्यम से महिलाओं की सामाजिक स्थिति में काफी परिवर्तन आया है ।
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