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महानगरेषु वाहनानाम् अनन्ताः पङ्क्तयः धावन्ति।
को कदा (ख) किं (ग) केषु (घ) कः
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भावार्थ — कवि कहता है कि धरती का आंगन कर्मरूपी ज्ञान और विज्ञान की सुगंध से महक उठे। चारों तरफ ज्ञान की ऐसी सरिता प्रवाहित हो कि खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, नगर-गाँव सब खिल उठें। लोगों के मन में नित नई-नई अभिलाषायें उत्पन्न हों और उनकी वो सारी अभिलाषायें पूर्ण हों।
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