I want a speech on importance of river in Hindi
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भारत में नदियों का महत्व
भारत में नदियों का महत्व: इतिहासकार भारत में नदियों की भूमिका पर बहुत महत्व देते हैं। नदियों के किनारे पर प्राचीन भारत की सभ्यताओं का विकास हुआ। हड़प्पा सभ्यता के रूप में जाना जाने वाला पहला पूर्व-ऐतिहासिक प्राचीन भारतीय सभ्यता सिंधु नदी द्वारा बनाई गई सिंधु घाटी पर विकसित हुई थी। भारत के कई शक्तिशाली नदियों हिमालय से उभरते हैं। खड़ी घाटियों के माध्यम से घूमते हुए, कई सहायक नदियों से आवाज़ इकट्ठा करते हुए, जैसा कि वे जाते हैं, सिंधु और गंगा या गंगा विपरीत दिशाओं में अपने रास्ते चलते हैं, जो अरब सागर में एक हो जाता है, दूसरे बंगाल की खाड़ी में। दोनों पंद्रह सौ मील लंबा हैं गंगा ब्रह्मपुत्र द्वारा उनके मुंह के पास जुड़ा हुआ है, जो उन सभी की सबसे लंबी नदी है। इन शक्तिशाली धाराओं की तुलना में दक्कन पठार की नदियों और दक्षिण भारत कम प्रभावशाली हैं।
भारतीय इतिहास में नदियों ने हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है अपने बैंकों के साथ-साथ सबसे पहले बस्तियों को पहले बड़े शहरों में बड़ा हुआ। पंजाब में सिंधु और उसकी सहायक उपनिवेशों द्वारा प्रदत्त उपहार, गंगा नदी के पांच नदियों की जमीन और हजारों सालों से भारत-गंगा के मैदान के विकास की शुरुआत में भारत की भारी जनसंख्या ने उपजाऊ घाटियों की खेती की है । क्या यह कोई आश्चर्य नहीं है कि शुरुआती समय से भारत के जीवन को पवित्र माना गया? आज तक, हिंदू गंगा की ‘गंगा गंगा’ कहते हैं महत्वपूर्ण शहरों और राजधानियों जैसे हस्तिनापुर, प्रयाग, और पाटलीपुत्र नदियों के तट पर स्थित थे।
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प्रकृति द्वारा विकसित एवं लगातार परिमार्जित मार्ग पर बहते पानी की अविरल धारा ही नदी है। बरसात उसे जन्म देती है। वह सामान्यतः ग्लेशियर, पहाड़ अथवा झरने से निकलकर सागर अथवा झील में समा जाती है। इस यात्रा में उसे अनेक सहायक नदियाँ मिलती हैं। नदी और उसकी सहायक नदियाँ मिलकर नदी तंत्र बनाती है। जिस इलाके का सारा पानी नदी तंत्र को मिलता है, वह इलाका जल निकास घाटी (वाटरशेड) कहलाता है। नदी, जल निकास घाटी पर बरसे पानी को इकट्ठा करती है। उसे प्रवाह में शामिल कर आगे बढ़ती है। वही उसके पानी की समृद्धि का आधार होता है।
नदी को अपनी यात्रा में बाढ़ के पानी के अलावा भूजल से सम्बन्धित दो प्रकार की परिस्थितियाँ मिलती हैं। पहली परिस्थिति जिसमें भूजल भण्डारों का पानी बाहर आकर नदी को मिलता है। दूसरी परिस्थिति जिसमें नदी में बहते प्रवाह का पूरा या कुछ हिस्सा, रिसकर भूजल भण्डारों को मिलता है। नदी, दोनों ही स्थितियों (Effluent– Gaining stage or influent– losing stage) का सामना करते हुए आगे बढ़ती है।
नदी का प्रवाह मिट्टी के कटाव व चट्टानों के नष्ट होने से प्राप्त मलबे तथा वनस्पतियों के अवशिष्टों को बहाकर आगे ले जाता है। उसका एक भाग सतही रन-आफ और दूसरा भाग भूजल प्रवाह कहलाता है। प्रवाह के इस विभाजन को प्रकृति नियंत्रित करती है। बरसात में सतही रन-आफ और बाकी दिनों में धरती की कोख से रिसा भूजल ही नदी में बहता है। अनुमान है कि नदी तल के ऊपर बहने वाले रन-आफ और नदी तल के नीचे बहने वाले भूजल का अनुपात 38:01 है।
उल्लेखनीय है कि भूजल प्रवाह, गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव से, लगातार निचले इलाको की ओर बहता है। उसकी इस यात्रा में कुछ पानी नदी के प्रवाह के रूप में सतह पर तथा बाकी हिस्सा नदी तल के नीचे-नीचे चलकर समुद्र में समा जाता है। नदी के सूखने के बावजूद नदी तल के नीचे पानी का प्रवाह बना रहता है। दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि नदी को भूजल का अधिकतम योगदान उथले एक्वीफरों से ही मिलता है।
नदी तंत्र में प्रवाहित बाढ़ के पानी के साथ मलबा (मिट्टी, सिल्ट, उपजाऊ तत्व इत्यादि) बहता है। उसका कुछ हिस्सा बाढ़-क्षेत्र (Floodplain) में और बाकी हिस्सा पानी के साथ आगे बढ़ जाता है और समुद्र के निकट पहुँचकर डेल्टा का निर्माण करता है। नदी तंत्र में प्रवाहित पानी का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा मलबे (ठोस) का और बाकी 30 प्रतिशत हिस्सा घुलित रसायनों का होता है। नदी तंत्र में प्रवाहित पानी का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा मुख्यतः बोल्डरों, बजरी, रेत और सिल्ट होता है। नदी मार्ग में उनका जमाव धरती का ढाल, प्रवाह की गति, जल की परिवहन क्षमता से नियंत्रित होता है। बोल्डर, बजरी जैसे बड़े कण नदी के प्रारम्भिक भाग में तथा छोटे कण अन्तिम भाग में मिलते हैं।
नदी अपने जलग्रहण क्षेत्र पर बरसे पानी को बड़ी नदी, झील अथवा समुद्र में जमा करती है पर कभी-कभी उसके मार्ग में मरुस्थल आ जाता है। उसके आने के कारण नदी का पानी रेत में रिसने लगता है। वाष्पीकरण भी बढ़ जाता है। नदी पर सूखने का खतरा बढ़ने लगता है। यदि पानी की आपूर्ति बनी रहती है तो वह मरुस्थल की रिसाव बाधा को पार कर लेती है। यदि पार नहीं कर पाती तो मरुस्थल में गुम हो जाती है।
नदी अपने जीवन काल में युवा अवस्था (Youth stage), प्रौढ़ अवस्था (Mature stage) तथा वृद्धावस्था (Old stage) से गुजरती है। इन अवस्थाओं का सम्बन्ध उसके कछार के ढाल से होता है। अपनी युवावस्था तथा प्रौढ़ावस्था में नदी अपने कछार में भूआकृतियों (Land forms) का निर्माण करती है। उनका परिमार्जन (Modify) करती है। अपनी प्राकृतिक भूमिका का निर्वाह करती है। वह जैविक विविधता से परिपूर्ण होती है। उसका अपना पारिस्थितिक तंत्र होता है जो स्थिर पानी (Lake and reservoir) के पारिस्थितिक तंत्र से पूरी तरह भिन्न होता है। वह प्राकृतिक एवं प्रकृति नियंत्रित व्यवस्था है जो वर्षाजल, सतही जल तथा भूजल को सन्तुलित रख, अनेक सामाजिक तथा आर्थिक कर्तव्यों का पालन करती है। वह जागृत इको-सिस्टम है। नदी पर निर्भर समाज के लिये वह आजीविका का आधार है। कुदरती तौर नदी का प्रवाह अविरल होता है। सूखे दिनों में उसका प्रवाह धीरे-धीरे कम होता है। नदी में रहने वाले जीव-जन्तु और वनस्पतियाँ उस बदलाव से परिचित होते हैं। इसलिये कुछ उस बदलाव के अनुसार अपने को ढाल लेते हैं तो कुछ अन्य इलाकों में पलायन कर जाते हैं।
वृद्धावस्था में नदी का कछार लगभग समतल हो जाता है। पानी फैलकर बहता है। तटों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। उस स्थिति में नदी की पहचान खत्म हो जाती है। वह विलुप्त हो जाती है पर उसके कछार पर पानी बरसना समाप्त नहीं होता।
हर स्वस्थ नदी अविरल होती है। प्रदूषण मुक्त रहती है। अविरलता उसकी पहचान है। स्वस्थ नदी के निम्न मुख्य संकेतक हैं-