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बहुत पहले की बात है. मेरे पिता जी को इस बात की बड़ी फ़िक्र रहती थी कि मैं बातें नहीं करती. ये उन दिनों की बात है, जब मैं छोटी बच्ची थी. मैंने फिर से ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली है.
अब मैं किसी हड़बड़ी में नहीं हूं. मैं आराम से बातें करती हूं. धीरे-धीरे बोलती हूं. एक बार में एक सच बयां करती हूं और बड़ी मोहब्बत से बातें करती हूं. मेरी आंखों से आंसू बहते रहते हैं और इन आंसुओं के ज़रिए शायद मैं अपनी ग़लतियों पर अफ़सोस ज़ाहिर करती हूं.
अप्रैल के महीने ने यूं भेष बदला है मानो इंतज़ार का दूसरा रूप है. मैं हर बात और हर इंसान की अनदेखी कर देती हूं. मैं फ़ोन को साइलेंट मोड पर रख देती हूं. वक़्त कितना ख़ूबसूरत लगता है न, जब वो ठहरा हुआ होता है. और, जैसा कि एक कवि ने कहा है, अप्रैल का महीना तो देखो, कितना निर्दयी है.
मेरे शहर में एक क़ब्रिस्तान उन लोगों के नाम कर दिया गया है, जिनकी मौत कोरोना वायरस की वजह से हुई. इस शहर की तनहाई में वो लाखों लोग शामिल हैं, जो अपने घरों की खिड़कियों से झांकते हुए इस दौर के ख़त्म हो जाने का इंतज़ार कर रहे हैं.