ईश्वरभक्ति आपके अपने कर्म से कैसे होती है?
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हिंदू सनातन धर्म भाग्यवादियों का धर्म नहीं है। वेद, उपनिषद और गीता- तीनों ही कर्म को कर्तव्य मानते हैं। यही पुरुषार्थ है, जो व्यक्ति भाग्य, ज्योतिष या भगवान भरोसे हैं उसको भी कर्म किए बगैर छुटकारा नहीं मिलने वाला। धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्रों में कहा गया है कि कर्म के बगैर गति नहीं। आओ छह प्रकार के कर्मों के बारे में।
1. नित्य कर्म (दैनिक कार्य)।
2. नैमित्य कर्म (नियमशील कार्य)।
3. काम्य कर्म (किसी मकसद से किया हुआ कार्य)।
4. निश्काम्य कर्म (बिना किसी स्वार्थ के किया हुआ कार्य)।
5. संचित कर्म (प्रारब्ध से सहेजे हुए कर्म)।
6. निषिद्ध कर्म (नहीं करने योग्य कर्म)।
जिस तरह से चोर को मदद करने के जुर्म में साथी को भी सजा होती है ठीक उसी तरह काम्य कर्म और संचित कर्म में हमें अपनों के किए हुए कार्य का भी फल भोगना पड़ता है और इसीलिए कहा जाता है कि अच्छे लोगों का साथ करो ताकि अपने जीवन में सभी कुछ अच्छा ही अच्छा हो।
क्या है संचित कर्म?
हिंदू दर्शन के अनुसार, मृत्यु के बाद मात्र यह भौतिक शरीर या देह ही नष्ट होती है, जबकि सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ संयुक्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर ही जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहक होता है। संस्कार अर्थात हमने जो भी अच्छे और बुरे कर्म किए हैं वे सभी और हमारी आदतें।
ये संस्कार मनुष्य के पूर्वजन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी रज और वीर्य के माध्यम से उसमें (सूक्ष्म शरीर में) प्रविष्ट होते हैं, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व इन दोनों से ही प्रभावित होता है। बालक के गर्भधारण की परिस्थितियां भी इन पर प्रभाव डालती हैं। ये कर्म 'संस्कार' ही प्रत्येक जन्म में संगृहीत (एकत्र) होते चले जाते हैं, जिससे कर्मों (अच्छे-बुरे दोनों) का एक विशाल भंडार बनता जाता है। इसे 'संचित कर्म' कहते हैं।
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