Hindi, asked by singhjiyana1, 16 days ago

इक ही है यह खेल भी इक का, लम्बा चौड़ा लेखा नहीं। कहे अवतार गुरू ही रब है, इस में कोई भुलेखा नहीं।​

Answers

Answered by doodle2612
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Answer:

रूप रंग आकार से न्यारे, करूँ लाख प्रणाम तुम्हें।

बुद्धि मन और अक्ल से बाहरे, करूँ लाख प्रणाम तुम्हें।

अनंत असीम अथाह स्वामी, करूँ लाख प्रणाम तुम्हें।

शाहों के भी शाह स्वामी, करूँ लाख प्रणाम तुम्हें।

आदि अनादि सर्वव्यापी, करूँ लाख प्रणाम तुम्हें।

युग-युग अन्दर तारे पापी, करूँ लाख प्रणाम तुम्हें।

घट-घट के हे अन्तर्यामी, करूँ लाख प्रणाम तुम्हें।

तुही नाम है तू ही नामी, करूँ लाख प्रणाम तुम्हें।

जीव जन्तु के पालनहारे, करूँ लाख प्रणाम तुम्हें।

कहे अवतार हे प्राण-अधारे, करूँ लाख प्रणाम तुम्हें।

तेरी ओट सहारा तेरा, तन मन से बलि जाऊँ।

कहे अवतार तेरे ही दाता, आठ पहर गुण गाऊँ।

तेरी आज्ञा के बिना, चल नहीं सकता कोइ।

अवतार न कुछ भी कर सके, तू चाहे सो होइ।

१ तू ही निरंकार(2)

कण-कण में है सूरत तेरी, पात-पात पर तेरा नाम।

इधर उधर चहुँ ओर निहारूँ, तेरी सूरत मेरे राम।

चन्दन में हो खुशबू तुम ही, गंगा में हो निर्मलता।

तुम ही तेज हो सूरज अन्दर, चन्दा में हो शीतलता।

फूलों में सुन्दरता तुम हो, कलियों में हो कोमलता।

मतियों में भी मति तुम्ही हो, तुही कला तू कौशलता।

सत्गुरु सच्चा बूटा तू ही, दसवां द्वारा तेरा देश।

कहे अवतार गुरू ने बख़्शी, अपनी बोली अपना वेश।

१ तू ही निरंकार(3)

सच है मेरी आरती पूजा, सच्चे का है सच विचार।

सच ही बरतूं सच ही बांहूँ, सच है मेरा कारोबार।

सच्चे मुझको सच दिखाया, सच से जोड़ी जीवन तार।

सच्ची नींव पे सच्ची रचना, सच का करता हूँ प्रचार।

रोम रोम में सच समाया, सच है सच्चा प्राणाधार।

सच है सागर, सच ही लहरें, सच है नौका सच पतवार।

सच्ची राह पर पूँजी सचकी, सच्ची हट्टी सच व्यापार।

यह सच्चा है एक ही सच्चा, घट घट में है जो निरंकार। बूटा सिंह ने सच दिखाया, कर के अपनी मेहर अपार।

अवतार गुरू के चरणों पर मैं, बार-बार जाऊँ बलिहार।

१ तू ही निरंकार(4)

मन बुद्धि भी पहुँच न पायें, दया-निधि की दया महान।

मेहर करे जो आप स्वामी, निर्धन को कर दे सुल्तान।

मेहर करे जो आप यह दाता, सेवक कुल जहान बने।

मेहर जो यह निरंकार करे, अनपढ़ भी विद्वान बने।

मेहर करे जो सत्गुरु पूरा, जन को मान बड़ाई दे।

मेहर करे जो सत्गुरु पूरा, दुनियां की अगवाई दे।

मेहर करे जो सत्गुरु पूरा, पीछे जगत लगा सकता।

मेहर करे जो सत्गुरु पूरा, जो चाहे करवा सकता।

मैं क्या हूँ क्या हस्ती मेरी, आप करे हो मेरा नाम।

अवतार गुरू है रीझा मुझ पर, सुन ले बेशक कुल जहान।

१ तू ही निरंकार(5)

मै बन्दा हूँ बन्दे जैसा, भिन्न न हस्ती पाई है।

सत्गुरु ने दी ज्ञान सलाई, तो यह दृष्टि पाई है। जो कुछ बोलूँ मेहर गुरू की, इसके लेख उल्लेख रहा।

अपने गुरु की बख़्शिश से ही, निरंकार को देख रहा।

मैं बना हूँ जब से इसका, हुआ है मेरा यह निरंकार।

इसको बरतूं इसको बांटूँ, मेरा है यह कारोबार।

निरंकार यह मन में मेरे, गुरू कृपा से बस गया है।

प्यार प्रीतम बेरंगे का, रोम-रोम में धस गया है।

मैं चलता हूँ उस रस्ते पर, जो इसने दिखलाया है।

कर्म करूं अवतार वही मैं, जो इसने बतलाया है।

१ तू ही निरंकार(6)

निरंकार गुरू का हुक्म है मुझको, परदा दूर हटाने का।

निरंकार गुरू का हुक्म है मुझको, भूले को समझाने का।

निरंकार गुरू का हुक्म है मुझको, प्रकट प्रमु निरंकार करूँ।

निरंकार गुरू का हुक्म है मुझको, मुक्त ये दुनियादार करूँ।

निरंकार गुरू का हुक्म है मुझको, एके का प्रचार करूँ।

निरंकार गुरू का हुक्म है मुझको, एके का व्यापार करूँ।

निरंकार गुरू का हुक्म है मुझको, सभी अन्धेरे चाक करूँ।

निरंकार गुरू का हुक्म है मुझको, जो दर आए पाक करूँ।

दुनिया लाख डराए मुझको, काम नहीं यह सकता छोड़।

जान अवतार रहे या जाये, इस से मुहँ नहीं सकता मोड़।

१ तू ही निरंकार(7)

यह तन मेरा खाक की ढेरी, जाती है तो जाने दो।

कुल माया और दौलत मेरी, जाती है तो जाने दो।

सच की दुश्मन दुनिया चाहे, लाखों बात बनाती रहे।

सच की दुश्मन दुनिया चाहे, लाखों दोष लगाती रहे।

सच की दुश्मन दुनिया चाहे, सच कहने से डरती रहे।

सच की दुश्मन दुनिया चाहे, जी भर निन्दा करती रहे।

गुटबन्दी व फिरकेदारी, जी भर शोर मचाती रहे।

भूल के मालिक अन्धी दुनिया रोती रहे कुरलाती रहे।

वैरी हो जाये चाहे दुनिया, छोड़ नहीं यह राह सकता।

कहे अवतार कि वचन गुरू का, कोई नहीं झुठला सकता।

१ तू ही निरंकार(8)

निकल पड़े जो सच की ख़ातिर, जग ने उन्हें सताया है।

सन्तों ने हर कष्ट उठाया, माथे बल ना आया है।

सन्तजनों को मनमुख हरदम, दीवाना बतलाते रहे।

अपने हित की खातिर ही वे संतों से टकराते रहे।

भटके राही रहबर को भी, भूला भटका कहते रहे।

बेपरवा ये सन्त हरि के, ताने-मेहने सहते रहे। शरअ के कायल जाबर हाकम, वैर ही वैर कमाते रहे।

काजी पण्डित अंधे आगू, फतवे खूब लगाते रहे।

आये की तो कद्र न जानें, मढ़ियों पे दीप जलाते हैं।

कहे अवतार आज भी मूरख, ज़िद अपनी मनवाते हैं।

Explanation:

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