Importance of women's role in society in hindi
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प्रस्तावना:
नारी का सम्मान करना एवं उसके हितों की रक्षा करना हमारे देश की सदियों पुरानी संस्कृति है । यह एक विडम्बना ही है कि भारतीय समाज में नारी की स्थिति अत्यन्त विरोधाभासी रही है । एक तरफ तो उसे शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है तो दूसरी ओर उसे ‘बेचारी अबला’ भी कहा जाता है । इन दोनों ही अतिवादी धारणाओं ने नारी के स्वतन्त्र बिकास में बाधा पहुंचाई है ।
प्राचीनकाल से ही नारी को इन्सान के रूप में देखने के प्रयास सम्भवत: कम ही हुये हैं । पुरुष के बराबर स्थान एवं अधिकारों की मांग ने भी उसे अत्यधिक छला है । अत: वह आज तक ‘मानवी’ का स्थान प्राप्त करने से भी वंचित रही है ।
चिन्तनात्मक विकास:
सदियों से ही भारतीय समाज में नारी की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है । उसी के बलबूते पर भारतीय समाज खड़ा है । नारी ने भिन्न-भिन्न रूपों में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । चाहे वह सीता हो, झांसी की रानी, इन्दिरा गाँधी हो, सरोजनी नायडू हो ।
किन्तु फिर भी वह सदियों से ही क्रूर समाज के अत्याचारों एवं शोषण का शिकार होती आई हैं । उसके हितों की रक्षा करने के लिए एवं समानता तथा न्याय दिलाने के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई है । महिला विकास के लिए आज विश्व भर में ‘महिला दिवस’ मनाये जा रहे हैं । संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग की जा रही है ।
इतना सब होने पर भी वह प्रतिदिन अत्याचारों एवं शोषण का शिकार हो रही है । मानवीय क्रूरता एवं हिंसा से ग्रसित है । यद्यपि वह शिक्षित है, हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है तथापि आवश्यकता इस बात की है कि उसे वास्तव में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय प्रदान किया जाये । समाज का चहुँमुखी वास्तविक विकास तभी सम्भव होगा ।
उपसंहार:
स्पष्ट है कि भारत में शताब्दियों की पराधीनता के कारण महिलाएं अभी तक समाज में पूरी तरह वह स्थान प्राप्त नहीं कर सकी हैं जो उन्हें मिलना चाहिए और जहाँ दहेज की वजह से कितनी ही बहू-बेटियों को जान से हाथ धोने पड़ते हैं तथा बलात्कार आदि की घटनाएं भी होती रहती हैं, वही हमारी सभ्यता और सांस्कृतिक परम्पराओं और शिक्षा के प्रसार तथा नित्यप्रति बद रही जागरूकता के कारण भारत की नारी आज भी दुनिया की महिलाओं से आगे है और पुरुषों के साथ हर क्षेत्र में कंधे से कंधा मिलाकर देश और समाज की प्रगति में अपना हिस्सा डाल रही है ।
सदियों से समय की धार पर चलती हुई नारी अनेक विडम्बनाओं और विसंगतियों के बीच जीती रही है । पूज्जा, भोग्या, सहचरी, सहधर्मिणी, माँ, बहन एवं अर्धांगिनी इन सभी रूपों में उसका शोषित और दमित स्वरूप । वैदिक काल में अपनी विद्वत्ता के लिए सम्मान पाने वाली नारी मुगलकाल में रनिवासों की शोभा बनकर रह गई ।
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लेकिन उसके संघर्षों से, उसकी योग्यता से बन्धनों की कड़ियां चरमरा गई । उसकी क्षमताओं को पुरुष प्रधान समाज रोक नहीं पाया । उसने स्वतन्त्रता संग्राम सरीखे आन्दोलनों में कमर कसकर भाग लिया और स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् संविधान में बराबरी का दर्जा पाया । राम राज्य से लेकर अब तक एक लम्बा संघर्षमय सफर किया है नारी ने । कई समाज सुधारकों, दोलनों और संगठनों द्वारा उठाई आवाजों के प्रयासों से यहां तक पहुंची है, नारी ।
जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली नारी की सामाजिक स्थिति में फिर भी परिवर्तन ‘ना’ के बराबर हुआ है । घर बाहर की दोहरी जिम्मेदारी निभाने वाली महिलाओं से यह पुरुष प्रधान समाज चाहता है कि वह अपने को पुरुषो के सामने दूसरे दर्जे पर समझें ।
आज की संघर्षशील नारी इन परस्पर विरोधी अपेक्षाओ को आसानी से नहीं स्वीकारती । आज की नारी के सामने जब सीता या गांधारी के आदर्शो का उदाहरण दिया जाता है तब वह इन चरित्रों के हर पहलू को ज्यों का त्यों स्वीकारने में असमर्थ रहती है । देश, काल, परिवेश और आवश्यकताओ का व्यक्ति के जीवन में बहुत महत्व है, समाज इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता ।
सीता के समय के और इस समय के सामाजिक परिवेश में धरती-आसमान का अंतर है । समाज सेविका श्रीमती ज्योत्सना बत्रा का कहना है कि आज के परिवेश मे सीता बनना बडा कठिन है । सीता स्वय में एक फिलोसिफी थीं । उनका जन्म मानव-जाति को मानव-मूल्यों को समझाने के लिए हुआ था ।
दूसरो के लिए आदर्श बनने के लिए व्यक्ति को स्वयं बहुत त्याग करने पडते है जैसे सीता ने किए । राम और सीता ने जीवन को दूसरो के लिए ही जिया । राम जानते थे कि धोबी द्वारा किया गया दोषारोपण गलत है, मिथ्या है । परंतु उन्होंने उसका प्रतिरोध न करके प्रजा की संतुष्टि के लिए सीता का त्याग कर दिया ।
राम की मर्यादा पर कोई आच न आए, प्रजा उन पर उंगली न उठाए यह सोचकर सीता ने पति द्वारा दिए गए बनवास को स्वीकार किया और वाल्मीकि के आश्रम में रहने लगी । अब न राम सरीखे शासक हैं न वाल्मीकि समान गुरू । हम सभी जानते हैं कि सीता के जीवन का संपूर्ण आनंद पति में ही केद्रित था ।
पति की सहचरी बनी वह चित्रकूट की कुटिया में भी राजभवन सा सुख पाती थी । ‘मेरी कुटिया में राजभवन मन माया’ सीता का यह कथन अपने पति श्री राम के प्रति उनकी अगाध आस्था को दर्शाता है । सीता अपना और राम का जन्म-जन्म का नाता मानती थीं । आज भी भारतीय नारी पति के साथ अपना जन्म-जन्म का नाता मानती है ।
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नारी का सम्मान करना एवं उसके हितों की रक्षा करना हमारे देश की सदियों पुरानी संस्कृति है । यह एक विडम्बना ही है कि भारतीय समाज में नारी की स्थिति अत्यन्त विरोधाभासी रही है । एक तरफ तो उसे शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है तो दूसरी ओर उसे ‘बेचारी अबला’ भी कहा जाता है । इन दोनों ही अतिवादी धारणाओं ने नारी के स्वतन्त्र बिकास में बाधा पहुंचाई है ।
प्राचीनकाल से ही नारी को इन्सान के रूप में देखने के प्रयास सम्भवत: कम ही हुये हैं । पुरुष के बराबर स्थान एवं अधिकारों की मांग ने भी उसे अत्यधिक छला है । अत: वह आज तक ‘मानवी’ का स्थान प्राप्त करने से भी वंचित रही है ।
चिन्तनात्मक विकास:
सदियों से ही भारतीय समाज में नारी की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है । उसी के बलबूते पर भारतीय समाज खड़ा है । नारी ने भिन्न-भिन्न रूपों में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । चाहे वह सीता हो, झांसी की रानी, इन्दिरा गाँधी हो, सरोजनी नायडू हो ।
किन्तु फिर भी वह सदियों से ही क्रूर समाज के अत्याचारों एवं शोषण का शिकार होती आई हैं । उसके हितों की रक्षा करने के लिए एवं समानता तथा न्याय दिलाने के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई है । महिला विकास के लिए आज विश्व भर में ‘महिला दिवस’ मनाये जा रहे हैं । संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग की जा रही है ।
इतना सब होने पर भी वह प्रतिदिन अत्याचारों एवं शोषण का शिकार हो रही है । मानवीय क्रूरता एवं हिंसा से ग्रसित है । यद्यपि वह शिक्षित है, हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है तथापि आवश्यकता इस बात की है कि उसे वास्तव में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय प्रदान किया जाये । समाज का चहुँमुखी वास्तविक विकास तभी सम्भव होगा ।
उपसंहार:
स्पष्ट है कि भारत में शताब्दियों की पराधीनता के कारण महिलाएं अभी तक समाज में पूरी तरह वह स्थान प्राप्त नहीं कर सकी हैं जो उन्हें मिलना चाहिए और जहाँ दहेज की वजह से कितनी ही बहू-बेटियों को जान से हाथ धोने पड़ते हैं तथा बलात्कार आदि की घटनाएं भी होती रहती हैं, वही हमारी सभ्यता और सांस्कृतिक परम्पराओं और शिक्षा के प्रसार तथा नित्यप्रति बद रही जागरूकता के कारण भारत की नारी आज भी दुनिया की महिलाओं से आगे है और पुरुषों के साथ हर क्षेत्र में कंधे से कंधा मिलाकर देश और समाज की प्रगति में अपना हिस्सा डाल रही है ।
सदियों से समय की धार पर चलती हुई नारी अनेक विडम्बनाओं और विसंगतियों के बीच जीती रही है । पूज्जा, भोग्या, सहचरी, सहधर्मिणी, माँ, बहन एवं अर्धांगिनी इन सभी रूपों में उसका शोषित और दमित स्वरूप । वैदिक काल में अपनी विद्वत्ता के लिए सम्मान पाने वाली नारी मुगलकाल में रनिवासों की शोभा बनकर रह गई ।
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लेकिन उसके संघर्षों से, उसकी योग्यता से बन्धनों की कड़ियां चरमरा गई । उसकी क्षमताओं को पुरुष प्रधान समाज रोक नहीं पाया । उसने स्वतन्त्रता संग्राम सरीखे आन्दोलनों में कमर कसकर भाग लिया और स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् संविधान में बराबरी का दर्जा पाया । राम राज्य से लेकर अब तक एक लम्बा संघर्षमय सफर किया है नारी ने । कई समाज सुधारकों, दोलनों और संगठनों द्वारा उठाई आवाजों के प्रयासों से यहां तक पहुंची है, नारी ।
जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली नारी की सामाजिक स्थिति में फिर भी परिवर्तन ‘ना’ के बराबर हुआ है । घर बाहर की दोहरी जिम्मेदारी निभाने वाली महिलाओं से यह पुरुष प्रधान समाज चाहता है कि वह अपने को पुरुषो के सामने दूसरे दर्जे पर समझें ।
आज की संघर्षशील नारी इन परस्पर विरोधी अपेक्षाओ को आसानी से नहीं स्वीकारती । आज की नारी के सामने जब सीता या गांधारी के आदर्शो का उदाहरण दिया जाता है तब वह इन चरित्रों के हर पहलू को ज्यों का त्यों स्वीकारने में असमर्थ रहती है । देश, काल, परिवेश और आवश्यकताओ का व्यक्ति के जीवन में बहुत महत्व है, समाज इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता ।
सीता के समय के और इस समय के सामाजिक परिवेश में धरती-आसमान का अंतर है । समाज सेविका श्रीमती ज्योत्सना बत्रा का कहना है कि आज के परिवेश मे सीता बनना बडा कठिन है । सीता स्वय में एक फिलोसिफी थीं । उनका जन्म मानव-जाति को मानव-मूल्यों को समझाने के लिए हुआ था ।
दूसरो के लिए आदर्श बनने के लिए व्यक्ति को स्वयं बहुत त्याग करने पडते है जैसे सीता ने किए । राम और सीता ने जीवन को दूसरो के लिए ही जिया । राम जानते थे कि धोबी द्वारा किया गया दोषारोपण गलत है, मिथ्या है । परंतु उन्होंने उसका प्रतिरोध न करके प्रजा की संतुष्टि के लिए सीता का त्याग कर दिया ।
राम की मर्यादा पर कोई आच न आए, प्रजा उन पर उंगली न उठाए यह सोचकर सीता ने पति द्वारा दिए गए बनवास को स्वीकार किया और वाल्मीकि के आश्रम में रहने लगी । अब न राम सरीखे शासक हैं न वाल्मीकि समान गुरू । हम सभी जानते हैं कि सीता के जीवन का संपूर्ण आनंद पति में ही केद्रित था ।
पति की सहचरी बनी वह चित्रकूट की कुटिया में भी राजभवन सा सुख पाती थी । ‘मेरी कुटिया में राजभवन मन माया’ सीता का यह कथन अपने पति श्री राम के प्रति उनकी अगाध आस्था को दर्शाता है । सीता अपना और राम का जन्म-जन्म का नाता मानती थीं । आज भी भारतीय नारी पति के साथ अपना जन्म-जन्म का नाता मानती है ।
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