। इसका त्याग अभी नही करना है
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सन्यास त्याग के तत्व को प्रथक-प्रथक मैं जान महाबाहु हे हृषीकेश वासुदेव भगवान।।1।।
अर्जुन बोले हे भगवान, सन्यास और त्याग लगभग एक से समझ में आते हैं परन्तु आपने उनकी चर्चा अलग-अलग की है। उनके प्रथक-प्रथक तत्व को बताने की कृपा करें। क्या दोनों एक हैं अथवा अलग-अलग हैं?
काम्य कर्म के त्याग को विज्ञ कहें सन्यास सकल कर्म के त्याग को त्याग विवेकी जान।।2।।
श्री भगवान बोले, हे अर्जुन, दान सम्बन्धी अनेक कर्म हैं जो फल की इच्छा से किये जाते हैं जैसे अन्न, धन, भूमि, गोदान, धर्मशाला, कुँआ, तालाब, मन्दिर, पाठशाला आदि बनाना और इन सभी का फल अवश्य मिलता है और उसे भोगना भी पड़ता है पर जो सन्यास अर्थात ज्ञान मार्ग का साधक है उसे इन दान सम्बन्धी काम्य कर्म का त्याग कर देना चाहिए। काम्य कर्म के त्याग से मन की वासना का नाश होता है परन्तु जो कर्म स्वाभाविक हैं उन्हें तो करना देहधारी के लिए आवश्यक है अतः उन कर्मों को करते हुए उनके फल का त्याग, ‘त्याग’ कहलाता है अर्थात फल का त्याग, त्याग है और काम्य कर्म का त्याग सन्यास है।