ishwar ki bhakti hi Sacha dhan
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सेवा करना परम धर्म समझ कर यथायोग्य तन, मन, धन से सबकी सेवा करो, परन्तु मन में कभी इस अभिमान को न उत्पन्न होने दो कि मैंने किसी की सेवा या उपकार किया है। उसे जो कुछ मिलता है सो उसके भाग्य से उसके कर्मफल के रूप में मिला है, तुम तो निमित्त मात्र हो तुम दूसरे की सुख पहुंचाने के निमित्त बनाये गये, इसको ईश्वर की कृपा समझो और जिसने तुम्हारी सेवा स्वीकार की उसके प्रति मन में कृतज्ञ होओ।
सेवा करके अहसान जताना, सेवा के बदले में सेवा चाहना, अन्य किसी भी फल-कामना की पूर्ति चाहना तो स्पष्टतः सेवाधर्म से च्युत होना है। मन में इस इच्छा को कदापि उत्पन्न न होने दो कि उसे मेरी की हुई सेवा का पता रहना चाहिये। सेवा के बदले में मान चाहना या बड़ाई और प्रतिष्ठा की चाह करना तो बहुत अनुपयुक्त है। यहाँ मनुष्य बहुधा भूल कर बैठता है। जब वह किसी व्यक्ति या समाज की कुछ सेवा करता है, उस समय तो संभवतः सेवा भाव से ही करता है, परन्तु पीछे से यदि उस सेवा के बदले में उसे कुछ भी नहीं मिलता, अथवा उसके उपलक्ष्य में किसी अन्य व्यक्ति को सम्मान मिलता है तो उसे दुःख-सा होता है। इस तरह दुःखी होने का कारण यह होता है उसने मन ही मन उस सेवा के बदले में सम्मानित होने का अपना स्वत्त्व समझ लिया था। दूसरे का सम्मान होते देखकर उसे अपना हक छिनता सा नजर आता है। वास्तव में यह एक प्रकार से सेवा का मूल्य घटाना है। इसलिये सेवा करके यह कभी मत चाहो कि मुझे कोई पुरस्कार या सम्मान मिले, न दूसरे की मान मिलता देखकर डाह करो। तुम अपना अधिकार केवल सेवा का ही समझो।
-”कल्याण कुँज”
अपने भीतर के आत्म-केन्द्र पर स्थिर रहो-
यदि आप विश्वास करते हैं कि आपकी प्रसन्नता दूसरे व्यक्तियों या साँसारिक पदार्थों पर निर्भर नहीं है वरन् उसका अटूट स्रोत अपने भीतर ही है, तो आप किसी भी दशा में क्यों न हो हमेशा शाँत रहेंगे। रंज और कष्ट आदि आपको कभी भी नहीं सता सकेंगे। इसके विपरीत यदि आप दूसरों पर ही भरोसा रखते हैं और दूसरों के व्यवहार को ही अपनी प्रसन्नता का आधार समझते हैं, अपनी शाँति के लिये दूसरों की सहायता को आवश्यक मानते हैं, तो आप आध्यात्मिक दृष्टि से कभी उच्च श्रेणी में नहीं समझे जा सकते। ऐसी दशा में कहीं आपका ठिकाना न होगा और साँसारिक उलझनों
सेवा करके अहसान जताना, सेवा के बदले में सेवा चाहना, अन्य किसी भी फल-कामना की पूर्ति चाहना तो स्पष्टतः सेवाधर्म से च्युत होना है। मन में इस इच्छा को कदापि उत्पन्न न होने दो कि उसे मेरी की हुई सेवा का पता रहना चाहिये। सेवा के बदले में मान चाहना या बड़ाई और प्रतिष्ठा की चाह करना तो बहुत अनुपयुक्त है। यहाँ मनुष्य बहुधा भूल कर बैठता है। जब वह किसी व्यक्ति या समाज की कुछ सेवा करता है, उस समय तो संभवतः सेवा भाव से ही करता है, परन्तु पीछे से यदि उस सेवा के बदले में उसे कुछ भी नहीं मिलता, अथवा उसके उपलक्ष्य में किसी अन्य व्यक्ति को सम्मान मिलता है तो उसे दुःख-सा होता है। इस तरह दुःखी होने का कारण यह होता है उसने मन ही मन उस सेवा के बदले में सम्मानित होने का अपना स्वत्त्व समझ लिया था। दूसरे का सम्मान होते देखकर उसे अपना हक छिनता सा नजर आता है। वास्तव में यह एक प्रकार से सेवा का मूल्य घटाना है। इसलिये सेवा करके यह कभी मत चाहो कि मुझे कोई पुरस्कार या सम्मान मिले, न दूसरे की मान मिलता देखकर डाह करो। तुम अपना अधिकार केवल सेवा का ही समझो।
-”कल्याण कुँज”
अपने भीतर के आत्म-केन्द्र पर स्थिर रहो-
यदि आप विश्वास करते हैं कि आपकी प्रसन्नता दूसरे व्यक्तियों या साँसारिक पदार्थों पर निर्भर नहीं है वरन् उसका अटूट स्रोत अपने भीतर ही है, तो आप किसी भी दशा में क्यों न हो हमेशा शाँत रहेंगे। रंज और कष्ट आदि आपको कभी भी नहीं सता सकेंगे। इसके विपरीत यदि आप दूसरों पर ही भरोसा रखते हैं और दूसरों के व्यवहार को ही अपनी प्रसन्नता का आधार समझते हैं, अपनी शाँति के लिये दूसरों की सहायता को आवश्यक मानते हैं, तो आप आध्यात्मिक दृष्टि से कभी उच्च श्रेणी में नहीं समझे जा सकते। ऐसी दशा में कहीं आपका ठिकाना न होगा और साँसारिक उलझनों
NightFury:
welcome ji
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