जंगल में जिस प्रकार अनेक लता वृक्ष और वनस्पति अपने अदम्य भाव से उठते हुए पारस्परि समिलन से अविरोधी सिलि प्राप्त करते है उसी प्रकार राष्ट्रीय जन अपनी संस्कतियों के द्वारा एक दूस के साथ सिलकर राष्ट में रहते हैं। जिस प्रकार जल के अनेक प्रवाह नदियों के रूप में मिलकर समुद्र एकरूपला प्राप्त करते हैं उसी प्रकार राष्रीय जीवन की अनेक विधियाँ राष्टीय संस्कृति में समन्वय प्राए करती हैं। समन्वय युक्त जीवन ही राष्ट का सुखदायी रूप है। इसके लेखक कौन है गद्यांश
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जंगल में जिस प्रकार अनेक लता वृक्ष और वनस्पति अपने अदम्य भाव से उठते हुए पारस्परि समिलन से अविरोधी सिलि प्राप्त करते है उसी प्रकार राष्ट्रीय जन अपनी संस्कतियों के द्वारा एक दूस के साथ सिलकर राष्ट में रहते हैं। जिस प्रकार जल के अनेक प्रवाह नदियों के रूप में मिलकर समुद्र एकरूपला प्राप्त करते हैं उसी प्रकार राष्रीय जीवन की अनेक विधियाँ राष्टीय संस्कृति में समन्वय प्राए करती हैं। समन्वय युक्त जीवन ही राष्ट का सुखदायी रूप है।
इसके गद्यांश के लेखक कौन है ?
इस गद्यांश के लेखक वासुदेव शरण अग्रवाल हैं। यह गद्यांश उनके निबंध 'राष्ट्र का स्वरूप' से लिया गया है। इस गद्यांश के माध्यम से लेखक ने राष्ट्रीय स्वरूप का विवेचन किया है।
व्याख्या :
लेखक कहते हैं कि जंगल में जिस तरह अनेक तरह के वृक्ष, लतायें, पेड़-पौधे, वनस्पतियां आदि परस्पर मिलकर रहते हैं, उसी तरह हम सभी अलग-अलग संस्कृति वाले निवासी भी अपने राष्ट्र में इसी प्रकार मिलकर रहते हैं। जिस तरह विभिन्न अलग-अलग नदियों का जल मिलकर एक समुद्र का रूप धारण कर लेता है। उसी प्रकार हमारे राष्ट्र में भी अनेक तरह की संस्कृतियों मिलकर राष्ट्ररूपी एक विशाल समुद्र बन जाती हैं।