जो जीवन-सुमन चढ़ा जननी के चरणों में,
सौ-सौ नंदन भी कब उसकी समता करते?
यमुना की लहरें नमन उसी को करती हैं,
गंगा की धारा उसका तर्पण करती है।
मधुऋतु भी उसके स्वागत में नतमस्तक हो
गर्वित आँखों से आँसू अर्पण करती है।
तरुणाई के लोहू से सिंचित जो धरती,
सौ-सौ मधुवन भी कब उसकी समता करते?
प्राची के अंबर में अरुणोदय की लाली,
हररोज़ सवेरे उसकी याद दिला जाती।
वह नव्ययौवना पाटल-कुसुमों की क्यारी,
उस बलिदानी के शोणित से लाली पाती।
जो गले लगा लेता हँसकर अंगारों को,
सौ-सौ आलिंगन कब उसकी समता करते?
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जीवन अस्थिर अनजाने ही, हो जाता पथ पर मेल कहीं,
सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल, तय कर लेना कुछ खेल नहीं।
दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते, सम्मुख चलता पथ का प्रमाद —
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,
उस-उस राही को धन्यवाद।
साँसों पर अवलम्बित काया, जब चलते-चलते चूर हुई,
दो स्नेह-शब्द मिल गए, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई।
पथ के पहचाने छूट गए, पर साथ-साथ चल रही याद —
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,
उस-उस राही को धन्यवाद।
जो साथ न मेरा दे पाए, उनसे कब सूनी हुई डगर?
मैं भी न चलूँ यदि तो भी क्या, राही मर लेकिन राह अमर।
इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गए स्वाद —
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,
उस-उस राही को धन्यवाद।
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