Hindi, asked by hemcharan5132, 1 year ago

जैन धर्म में श्वेताम्बर नामक पंथ की उत्पत्ति कहाँ हुई?
A. राजगृह
B. वल्लभी
C. उज्जैन
D. साँची

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Answered by Anonymous
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the correct answer is B [वल्लभी... 

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Answered by Abhinendrathakur
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श्वेतांबरों के दो भेद हैं : मूर्तिपूजक और स्थानकवासी।

श्वेतांबर मूर्तिपूजकों के गच्छ

श्वेतांबर मूर्तिपूजकों को पुजेरा, मूर्तिपुजक, देरावासी अथवा मंदिरमार्गी भी कहा जाता है। श्वेताम्बर संप्रदाय द्वारा मान्य गच्छों के नामों में मतभेद देखने में आता है। अनेक पत्रकों में सुप्रसिद्ध गच्छों के नाम भी नहीं पाए जाते। उद्योतन सूरि के समय (ईo ९३७) से इन गच्छों का आरंभ हुआ माना जाता है। कहते हैं, उद्योतन सूरि के ८४ शिष्यों ने ८४ गच्छों की स्थापना की। समय समय पर गच्छों के नामों में संशोधन परिवर्तन होता रहा। समस्त गच्छों के ऊपर एक श्रीपूज्य होता है; साधुओं के चातुर्मास आदि के संबंध में वह अपना निर्णय देता है, और आवश्यकता पड़ने पर किसी साधु को संघ के बाहर कर सकता है। गच्छ में मुनियों के ऊपर एक आचार्य होता है, उसके नीचे उपाध्याय और उपाध्याय के नीचे पंन्यास होता है जो यतियों की क्रियाओं का ध्यान रखता है पंन्यास के नीचे गणि होता है, वह भगवतीसूत्र तक का अभ्यासी होता है। जिन मुनियों का महानिशीथ तक का अभ्यास होता है वे श्रावकों को व्रत दे सकते हैं।

८४ गच्छों में उपकेश, खरतर, तपा, पायचंद, पूनमिया, अंचल और आगमिक आदि गच्छ मुख्य हैं।

स्थानकवासी संप्रदाय

स्थानकवासियों की समस्त क्रियाएँ स्थानक (उपाश्रय) में होती हैं इसलिये ये स्थानकवासी कहे जाते हैं। इन्हें ढूँढ़िया, बिस्तोला अथवा साधुमार्गी भी कहते हैं। ये भी श्वेतांबर ही हैं, लेकिन मूर्तिपूजा को नहीं मानते और केवल ३२ आगमों को प्रमाण मानते हैं। इसके संस्थापक लोंकाशाह थे जो अहमदाबाद में शास्त्रों की नकल किया करते थे। जैन आगमों के अध्ययन से इन्हें पता लगा कि इनमें मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं है, तथा सभी आगम प्रमाण नहीं माने जा सकते। आगे चलकर सन् १४६७ में लोंकाशाह साधु बन गए। इन्होंने लोंका अथवा लुंपाक संघ चलाया; भाणजी नामक श्रावक उनका प्रथम गणधर हुआ।

वीर के पुत्र लवजी ने लोंकामत में सुधार करने का प्रयत्न किया। उन्होंने सन् १६५३ में ढूँढ़िया नामक संप्रदाय चलाया जो बाद में लोंकामत का ही समर्थक हुआ। इस संप्रदाय के गुजरात में अनेक शिष्य बने।



वल्लभी ज्ञान का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था और यहाँ कई बौद्ध मठ भी थे। यहाँ सातवीं सदी के मध्य में चीनी यात्री ह्वेन त्सांगऔर अन्त में आईचिन आए थे। जिन्होंने इसकी तुलना बिहारके नालन्दा से की थी। एक जैन परम्परा के अनुसार पाँचवीं या छठी शताब्दी में दूसरी जैन परिषद् वल्लभी में आयोजित की गई थी। इसी परिषद् में जैन ग्रन्थों ने वर्तमान स्वरूप ग्रहण किया था। यह नगर अब लुप्त हो चुका है, लेकिन वल नामक गाँव से इसकी पहचान की गई है, जहाँ मैत्रकों के ताँबे के अभिलेख और मुद्राएँ पाई गई हैं।

प्राचीन काल में यह राज्य गुजरात के प्रायद्वीपीय भाग में स्थित था। वर्तमान समय में इसका नाम वला नामक भूतपूर्व रियासत तथा उसके मुख्य स्थान वलभी के नाम में सुरक्षित रह गया है। 770 ई. के पूर्व यह देश भारत में विख्यात था। यहाँ की प्रसिद्धि का कारण वल्लभी विश्वविद्यालय था जो तक्षशिला तथा नालन्दा की परम्परा में था। वल्लभीपुर या वलभि से यहाँ के शासकों के उत्तरगुप्तकालीन अनेक अभिलेख प्राप्त हुए हैं। बुंदेलों के परम्परागत इतिहास से सूचित होता है कि वल्लभीपुर की स्थापना उनके पूर्वपुरुष कनकसेन ने की थी जो श्री रामचन्द्र के पुत्र लव का वंशज था। इसका समय 144 ई. कहा जाता है।


जैन अनुश्रुति के अनुसार जैन धर्म की तीसरी परिषद् वल्लभीपुर में हुई थी, जिसके अध्यक्ष देवर्धिगणि नामक आचार्य थे। इस परिषद् के द्वारा प्राचीन जैन आगमों का सम्पादन किया गया था। जो संग्रह सम्पादित हुआ उसकी अनेक प्रतियाँ बनाकर भारत के बड़े-बड़े नगरों में सुरक्षित कर दी गई थी। यही परिषद् छठी शती ई. में हुई थी। जैन ग्रन्थ विविध तीर्थ कल्प के अनुसार वलभि गुजरात की परम वैभवशाली नगरी थी। वलभि नरेश शीलादित्य ने रंकज नामक एक धनी व्यापारी का अपमान किया था, जिसने अफ़ग़ानिस्तान के अमीर या हम्मीरय को शीलादित्य के विरुद्ध भड़काकर आक्रमण करने के लिए निमंत्रित किया था। इस युद्ध में शीलादित्य मारा गया था।

सही जवाब है । (B)बल्लभी
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