ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु अज्ञानता नहीं, बल्कि ज्ञान होने का भ्रम होना है।
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असल में ज्ञान का मतलब केवल मोटी-मोटी पुस्तकों का अध्ययन करने से नही बल्कि ज्ञान वह गूण है , जिसके द्वारा मनुष्य अपने सुख-दुख, काम - क्रोध , लोभ- मोह , आलस्यता , कार्यकुशलता का समन्वय अपने दैनिक जीवन में करता है ।ज्ञानी मनुष्य को किसी का भय नही होता , वह निडरता से , अपने ज्ञान का उपयोग कर जीवन को सुलभ और सरल बना लेता है।
गीता मे भी कहा गया है ।
" न हि ज्ञानेन संदृशं पवित्र मिह विद्यते "
अर्थात् - ज्ञान से अधिक पवित्र संसार में कुछ भी नही है ।
अज्ञानता का होना कोई बुरी बात नही , यह किसी मनुृष्य को जीवन जीने में बाध्य नही करता , हालाकि अज्ञानता से मनुष्य जीवन शैली में परिवर्तन नही ला सकता, बेहतर रोजगार के अवसर प्राप्त नही कर सकता , अपने परिवार को दैनिक सुख नही उपलब्ध करा सकता ।
अज्ञानी पुरुष भी ज्ञानी बन सकता है , अपितु उसमें ज्ञान को अर्जित करने की जिज्ञासा होनी चाहिए । अत: ज्ञान का शत्रु अज्ञानता नही है ।
हम सभी ने बचपन में एक कहानी पढी थी ।
जिसमे एक पुरुष ज्ञान अर्जित कर घर लौट रहे थे । रास्ते में नदी मिली , वह नाव से नदी को पार करने लगा । नाविक से उन्होने पुस्तकों पर आधारित प्रश्न पूछे । नाविक न बता सका , वह नाविक को मूर्ख कहकर धिक्कारता , कुछ समय बाद बहुत तेज तुफान आई , पुरुष को तैरना नही आता था , अत: वह डूब गया ।परन्तु नाविक एक कुशल तैराक था , जिसके कारण वह बच गया ।
यहाँ अज्ञानी नाविक नही , बल्कि वह पुरुष था जो अपने आप को प्रचंड समझ रहा था । आधे - अधुरे ज्ञान वाले मनुष्य इसी कहानी के पुरुष के समान होते है ।वे अपने -आप को दूसरों से सदैव उँचा समझते हैं, दूसरो से घृणा करते हैं ।
" अधजल गगरी छलकत जाय "
पूरा भरा घड़ा कभी छलकता नही है परन्तु घड़ा जब आधा भरा हो तो वह छलकने लगता है ।
थोड़े ज्ञान वाले व्यक्ति को ज्ञान होने का भ्रम होता है। उनका मस्तिष्क केवल दूसरों को निचा दिखाना , ईर्ष्या करना, द्वेष करना आदि का कार्य करता है । उनमें सिखने की जिज्ञासा नही होती ।
वह दूसरों के घर में कलेष , फूट डालने की कोशिश करता है ।
अत: यह कहना उचित है कि ,
ज्ञान का सबसे बड़ा सत्रु अज्ञानता नही बल्कि ज्ञान होने का भ्रम है ।
गीता मे भी कहा गया है ।
" न हि ज्ञानेन संदृशं पवित्र मिह विद्यते "
अर्थात् - ज्ञान से अधिक पवित्र संसार में कुछ भी नही है ।
अज्ञानता का होना कोई बुरी बात नही , यह किसी मनुृष्य को जीवन जीने में बाध्य नही करता , हालाकि अज्ञानता से मनुष्य जीवन शैली में परिवर्तन नही ला सकता, बेहतर रोजगार के अवसर प्राप्त नही कर सकता , अपने परिवार को दैनिक सुख नही उपलब्ध करा सकता ।
अज्ञानी पुरुष भी ज्ञानी बन सकता है , अपितु उसमें ज्ञान को अर्जित करने की जिज्ञासा होनी चाहिए । अत: ज्ञान का शत्रु अज्ञानता नही है ।
हम सभी ने बचपन में एक कहानी पढी थी ।
जिसमे एक पुरुष ज्ञान अर्जित कर घर लौट रहे थे । रास्ते में नदी मिली , वह नाव से नदी को पार करने लगा । नाविक से उन्होने पुस्तकों पर आधारित प्रश्न पूछे । नाविक न बता सका , वह नाविक को मूर्ख कहकर धिक्कारता , कुछ समय बाद बहुत तेज तुफान आई , पुरुष को तैरना नही आता था , अत: वह डूब गया ।परन्तु नाविक एक कुशल तैराक था , जिसके कारण वह बच गया ।
यहाँ अज्ञानी नाविक नही , बल्कि वह पुरुष था जो अपने आप को प्रचंड समझ रहा था । आधे - अधुरे ज्ञान वाले मनुष्य इसी कहानी के पुरुष के समान होते है ।वे अपने -आप को दूसरों से सदैव उँचा समझते हैं, दूसरो से घृणा करते हैं ।
" अधजल गगरी छलकत जाय "
पूरा भरा घड़ा कभी छलकता नही है परन्तु घड़ा जब आधा भरा हो तो वह छलकने लगता है ।
थोड़े ज्ञान वाले व्यक्ति को ज्ञान होने का भ्रम होता है। उनका मस्तिष्क केवल दूसरों को निचा दिखाना , ईर्ष्या करना, द्वेष करना आदि का कार्य करता है । उनमें सिखने की जिज्ञासा नही होती ।
वह दूसरों के घर में कलेष , फूट डालने की कोशिश करता है ।
अत: यह कहना उचित है कि ,
ज्ञान का सबसे बड़ा सत्रु अज्ञानता नही बल्कि ज्ञान होने का भ्रम है ।
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HOpe it is helpful,,,,,,,,,,,
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ishaprabhat16:
Thnk uuu sooo muchhh
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