Hindi, asked by dubeymeenu860, 9 months ago

जौ पै हौं मातु मते महँ ह्वैहौं ।
तौ जन्नी! जग में या मुख की कहाँ कालिमा ध्वैहौ?
क्यों हौं आजु होत सुचि सपथनि? कौन मानिहै साँची?
महिमा-मृगी कौन सुकृती की खल-बच-बिसिखन बाँची?
गहि न जाति रसना काहू की, कहौ जाहि जोइ सूझै।
दीनबंधु कारुन्य-सिंधु बिनु कौन हिए की बूझै ?
तुलसी रामबियोग-बिषम-बिष-बिकल नारिनर भारी।
भरत-स्नेह-सुधा सींचे सब भए तेहि समय सुखारी॥ १॥​

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Answered by shrehanreactiontime
8

Answer:

व्ह्स्ब्सहहबबाह्स्बबाब्स

Answered by Rameshjangid
0

Answer:

साखी के संदर्भ में दीपक ज्ञान रूपी प्रकाश का प्रतीक है। जिस प्रकार दीपक का प्रकाश अंधकार को मिटा देता है, उसी प्रकार से जब ईश्वरीय ज्ञान की लौ दिखाई देती है, तब अज्ञान रूपी अंधकार मिट जाता है और मनुष्य के भीतर-बाहर ज्ञान का प्रकाश फैल जाता है। ज्ञान का प्रकाश तभी प्रज्वलित होता है, जब मनुष्य का 'अहम्' नष्ट हो जाता है और परमात्मा से उसका साक्षात्कार हो जाता है।

Explanation:

Step : 1 मीठी वाणी जीवन में आत्मिक सुख व शांति प्रदान करती है। इसके प्रयोग से संपूर्ण वातावरण सरस व सहज बन जाता है। यह सुननेवाले के मन को प्रभावित व आनंदित करती है। इसके प्रभाव से मन में स्थित शत्रुता, कटुता वे आपसी ईष्रया-द्वेष के भाव समाप्त हो जाते हैं। मीठी वाणी बोलने से सुननेवालों को शांति प्राप्त होती है। इसलिए हमें ऐसी वाणी बोलनी चाहिए कि जिसे सुनकर लोग आनंद की अनुभूति करें। हम मीठी वाणी बोलकर अपने शरीर को भी शीतलता पहुँचाते हैं। कठोर वाणी हमें क्रोधित व उत्तेजित करती है। मीठी वाणी अहंकारशून्य होने के कारण तन को शीतलता प्रदान करती है तथा आनंद की सुखद अनुभूति कराती है। इस प्रकार मीठी वाणी बोलने से न केवल दूसरों को हम सुख प्रदान करते हैं अपितु स्वयं भी शीतलता का अनुभव करते हैं।

Step : 2 ईश्वर संसार के कण-कण में व्याप्त है परंतु हम उसे देख नहीं पाते, क्योंकि हमारा अस्थिर मन सांसारिक विषय-वासनाओं, अज्ञानता, अहंकार और अविश्वास से घिरा रहता है। अज्ञान के कारण हम ईश्वर से साक्षात्कार नहीं कर पाते। जिस प्रकार कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ हिरण की नाभि में विद्यमान होता है लेकिन वह उसे जंगल में इधर-उधर दूँढ़ता रहता है उसी प्रकार ईश्वर हमारे हृदय में निवास करते हैं परंतु हम उन्हें अज्ञानता के कारण मंदिरों, मस्जिदों, गिरिजाघरों व गुरुद्वारों में व्यर्थ में ही खोजते फिरते हैं। कबीर के मतानुसार कण-कण में छिपे परमात्मा को पाने के लिए ज्ञान का होना अत्यंत आवश्यक है।

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